November 27, 2021

धुर विरोधी दलों में भी यारी हुई

नमस्कार साथियो🙏🙏
कुछ भी कहिए ग़ज़ल विधा के साथ एक आसानी तो है कि
इसका हर शेर पहले से जुदा होता है और अलग-अलग शेरों
में अलग-अलग कथ्य पिरोए जा सकते हैं।गीत में ऐसा नहीं होता
उसके भावों में विषय की तारतम्यता का महत्व होता है।
अभी मेरे साथ ऐसा ही हुआ ।आजकल अख़बार और टी वी पर
राजनीति और चुनाव को लेकर ख़ूब ख़बरें पढ़ और देख रहें हैं
तो उसी संदर्भ में ग़ज़ल का एक मतला हो गया और फिर उसमें
कई और अलग मिज़ाज के शेर भी हो गए जो आपकी अदालत
में हाज़िर हैं---

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
सूचना  क्या  इलक्शन  की  जारी हुई,
धुर  विरोधी  दलों   में  भी  यारी  हुई।

दीन दुनिया से बिल्कुल ही अनजान थे,
घर  से  निकले तो कुछ जानकारी हुई।

आज  निर्धन  हुआ  और  निर्धन  यहाँ,
जेब   धनवान   की   और   भारी  हुई।
 
मुझपे  होगा  भी  कैसे बला  का असर,
माँ   ने   मेरी   नज़र   है   उतारी   हुई।

खेद  इसका   है   गतिरोध   टूटा  नहीं,
बात    उनसे    निरंतर    हमारी    हुई।
             ---   ओंकार सिंह विवेक

                (Copy right)




November 25, 2021

एक अनूठा प्रयोग : टैगोर काव्य गोष्ठी

आज राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला ,रामपुर में  प्रसिद्ध सर्राफ,समाजसेवी तथा साहित्यकार  टैगोर  स्कूल के  प्रबंधक श्री रवि प्रकाश जी द्वारा "टैगोर काव्य गोष्ठी" का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम में रामपुर की कवयित्री श्रीमती अनमोल रागिनी गर्ग को उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचानते हुए विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया।कार्यक्रम में श्रीमती अनमोल रागिनी जी के अतिरिक्त कविवर सर्व श्री जितेंद्र कमल आनंद ,रामकिशोर वर्मा ,ओंकार सिंह विवेक ,प्रदीप राजपूत ,राजीव कुमार शर्मा ,शिव कुमार चंदन ,सुरेंद्र अश्क रामपुरी ,सुरेश अधीर ,डॉ अब्दुल रऊफ आदि की उल्लेखनीय काव्य प्रस्तुतियाँ एवं संबोधन रहा।
कार्यक्रम के आयोजन का दायित्व श्री रवि प्रकाश जी के संस्कारवान सुपुत्र डेंटल सर्जन डॉ. रजत प्रकाश तथा उनकी पत्नी डेंटल सर्जन डॉ. हर्षिता पूठिया द्वारा बहुत ही उत्साह और समर्पण-भाव से सँभाला गया।श्रोताओं ने काव्य पाठ का भरपूर आनंद लिया। 
अंत में श्री रवि प्रकाश जी एवं  विनम्र स्वभाव की धनी उनकी धर्मपत्नी  द्वारा सभी का आभार प्रकट करते हुए कार्यक्रम समापन की घोषणा की गई।
इस अवसर के कुछ छाया चित्र संलग्न हैं।।                                 प्रस्तुतकर्ता-  ओंकार सिंह विवेक

November 22, 2021

माँ का आशीष फल गया होगा



दोस्तो हाज़िर है एक नई ग़ज़ल फिर से आपकी अदालत में

2   1 2   2  1  2  1  2      2  2/1 1 2
फ़ाइलातुन    मुफाइलुन    फ़ेलुन/फ़इलुन

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक

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माँ  का  आशीष   फल  गया  होगा,
गिर  के   बेटा   सँभल  गया   होगा।

ख़्वाब  में  भी  न  था  गुमां  मुझको,
दोस्त    इतना    बदल   गया  होगा।

छत  से    दीदार   कर   लिया  जाए,
चाँद  कब  का   निकल  गया  होगा।
©️
सच   बताऊँ   तो   जीत   से    मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।

आईना    जो     दिखा    दिया   मैंने,
बस   यही  उसको  खल  गया होगा।

जीतकर    सबका   एतबार  'विवेक',
चाल   कोई   वो   चल    गया  होगा।   
            -- ©️ओंकार सिंह विवेक

November 17, 2021

आँसुओं की ख़ुद्दारी

मनुष्य के हर हाव-भाव और भावभंगिमा तथा अभिव्यक्ति का अपना महत्व है। अब आँसुओं को ही ले लीजिए, इनका भी अपना
स्वाभिमान होता है ।आँसू पलकों पर कभी बिना बुलाए नहीं आते।
ये तभी पलकों पर आकर बैठते हैं जब इन्हें ख़ुशी या ग़म की तरफ़
से कोई निमंत्रण मिलता है।कहने का तात्पर्य यह है कि आदमी की आँखों में आँसू या तो किसी ग़म के कारण आते हैं या फिर बहुत अधिक ख़ुश होने पर। इसी ख़याल को लेकर एक मतला हुआ और फिर कुछ शेर भी हो गए जो आप सबकी अदालत में हाज़िर
कर रहा हूँ--

ग़ज़ल-- ©️ ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
रंज - ख़ुशी    के    दावतनामे   जाते  हैं,
यूँ  ही  कब  पलकों  तक  आँसू आते हैं।

कैसे   कह   दें  उनको   रागों  का  ज्ञाता,    
रात  ढले  तक  राग  यमन  जो  गाते  हैं।

वक़्त की गर्दिश करती है जो ज़ख़्म अता,          
वक़्त  की  रहमत से  वो भर भी जाते हैं।
©️
शुक्र  अदा  करना  तो   बनता  है  इनका,
हम  जंगल - नदियों  से  जितना  पाते हैं।

उनका    क्या   लेना - देना   सच्चाई  से,
वो    तो    केवल   अफ़वाहें   फैलाते  हैं।
              
फैट-शुगर  बढ़ने  का  ख़तरा  क्या  होगा,
हम   निर्धन   तो   रूखी-सूखी  खाते  हैं।
                --- ©️ ओंकार सिंह विवेक

November 11, 2021

"दर्द का अहसास"--एक समीक्षा

इंदौर,मध्य प्रदेश की सुप्रसिद्ध साहित्यकार और समाज सेविका आदरणीया तृप्ति मिश्रा साहिबा ने मेरे ग़ज़ल संग्रह दर्द का अहसास की समीक्षा लिखकर प्रेषित की है जिसे आप सब के साथ साझा कर रहा हूँ। मैं आदरणीया तृप्ति मिश्रा जी की सदाशयता हेतु उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

*सीधे दिल को छूता हुआ "दर्द का एहसास"*

सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ,
गुलसितां  में ज़र्द  हर पत्ता हुआ।

हाथ   पर    कैसे   चढ़े  रंगे-हिना ,
जब ख़ुशी पर रंज का पहरा हुआ।

आज हाथों में जनाब ओंकार सिंह "विवेक" जी की "दर्द का एहसास" आ गई और पहले-पहल के इन शेरों को पढ़कर इस किताब में छुपे दर्द के एहसास का अंदाज़ा हुआ। इसके बाद हर्फ़-दर-हर्फ़ डूबती गई और पूरी अठ्ठावन ग़ज़लों में ज़ाहिर टीस के ऊपर अपने को कुछ कहने से रोक न पाई। माज़रत के साथ इन गजलों के बारे में कुछ कहने की हिमाक़त कर रही हूँ।

यूँ तो कोरोना भले ही काल बनकर आया है पर साहित्य की बिसरती-सी इस दुनिया में, डिजिटल दुनिया ने समझो एक नई जान फूँक दी। जो वाक़ई क़लमकार थे, उन्होंने वक्त का सही उपयोग कर अपने फ़न को ख़ूब निखारा। ओंकार सिंह "विवेक" जी से भी मेरा 
तआरुफ़ डिजिटल दुनिया के साथ ही हुआ है। इनकी उम्दा ग़ज़लों  से रूबरू होकर ही मुझे इनकी उम्दा शख़्सियत का अंदाज़ा हुआ। यूँ तो ग़ज़ल कहना मेरे बस की बात नहीं है और बह्र, तरन्नुम, तहत यह सब सीख ही रही हूँ, कुछ-कुछ समझने भी लगी हूँ। 

आज के माहौल में कई लोग चंद शेर लिखकर अपने को ग़ज़लकार कहते हैं। पर जितना मैंने जाना है, ग़ज़ल में बह्र के साथ कहन या भाव भी होना चाहिए और शुरू से आख़िर तक शेर-दर-शेर यह ग़ज़ल बढ़े और आख़िरी शेर में मुक्कमल दिखे। विवेक जी की ग़ज़लें इस बात पर खरी उतरती हैं, जो आजकल अन्य ग़ज़लों में कम ही नज़र आता है। अठ्ठावन गजलों के इस गुलदस्ते में दर्द का हर रंग है। हर ग़ज़ल ख़ुद को किसी-ना-किसी से जोड़ती है।कई शेर पढ़कर ऐसा लगता है कि शायद आप की अपनी शख़्सियत पर ही लिखे गए हों। चुनाँचे इन  ग़ज़लों में अक्स और सरोकार दोनों देखे जा सकते हैं। चंद अशआर देखिए 

नस्ले-नौ पर है असर जब से नई तहज़ीब का,
तबसे ख़तरे  में  यहाँ  हर बाप  की दस्तार है।

नई तहज़ीब के सहने- चमन में,
हया  के  फूल  मुरझाने  लगे हैं ।

इन शेरों में नई नस्ल के तौर-तरीक़ों पर करारा तंज़ है।

आज के ज़माने में हर कोई अपने को सामने वाले से ज़ियादा समझता है। रिश्तों की कशमकश पर  इनकी कहन देखिए-

नहीं है बात समझौते की कोई ,
जिसे देखो वही ज़िद पर अड़ा है 

लोग, हमसाये पे गुज़रा हादसा,
जानते हैं सुब्ह  के अख़बार से।

अमीरे-शहर  वो  कैसे  बना है,
नगर के सब ग़रीबों को पता है।

 विवेक जी की इन ग़ज़लों में दर्द के साथ उस दर्द से उबरने की ताकीद भी है। चंद अशआर ज़रूर यहाँ आप सब की नज़्र करना चाहूँगी--

हौसला अपना ग़मे-ज़ीस्त पे भारी रखिए,
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिए।

इंसानियत-मुहब्बत- तहज़ीब की हिमायत,
शिद्दत से  मेरी ग़ज़लों  में  बार-बार होगी ।

हमें अश्कों को पीना आ गया है, 
ग़रज़ यह है कि जीना आ गया है। 

दाद मिली महफ़िल में थोड़ी तो ऐसा महसूस हुआ, 
ग़ज़लों  में हमने  भी  शायद अच्छे  शेर निकाले थे। 

जी हाँ, विवेक जी आपने अपने क़लम से बेहद उम्दा अशआर निकाले हैं। जिनको पढ़-पढ़ कर दाद अपने आप ही निकल जाती है। हर ग़ज़ल ख़ूबसूरती के साथ अपनी बात कहती है। मेरा दावा है "दर्द का एहसास" पढ़ने वाले इन ग़ज़लों में ज़रूर अपने आसपास को पा सकेंगे।  ग़ज़ल ख़ूबसूरत बहरों में मुकम्मल बात, जो सीधे दिल को छुए वह कहती है यह किताब "दर्द का एहसास" ।मैं अपेक्षा करूँगी कि संवेदनशील साहित्य में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें।

लेखनी चलती रहे
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ

 सादर 
तृप्ति मिश्रा

प्रस्तुतकर्ता--ओंकार सिंह विवेक

November 10, 2021

उम्र भर उपकार कर

शुभ संध्या🙏🙏
सभी ग़ज़ल प्रेमी साहित्य मनीषियों का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन ।

प्रस्तुत है मेरी बहुत आसान बह्र में कही गई एक ग़ज़ल
जिसमें अधिक से अधिक हिंदी शब्दों के प्रयोग का प्रयास
किया है।

अरकान--   फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
वज़्न    --    2 1 2 2     2 1 2 2    2 1 2 2     2 1 2
            
              🌷
                हो  सके  जितना  भी  तुझसे  उम्र  भर उपकार कर,
                बाँट  कर   दुख-दर्द  बंदे   हर  किसी  से  प्यार  कर।
              🌷
                छल-कपट  के  भाव  करते  हैं  सदा मन का अहित,
                हो  तनिक  यदि  इनकी आहट बंद मन के द्वार कर।
              🌷
               जिसको सुनते ही ख़ुशी से सबके तन-मन खिल उठें,
               ऐसी   वाणी   से   सदा  व्यक्तित्व   का   शृंगार   कर।
              🌷
                विश्व  के  कल्याण   की  जिनसे  प्रबल  हो   भावना,
                उन  विचारों  का   सदा  मस्तिष्क   में   संचार   कर।
              🌷
                पर्वतों   को   चीरकर   जो    बह   रही  है   शान   से,
                प्रेरणा  ले   उस   नदी   से   संकटों   को   पार   कर।
              🌷
                नफ़रतों   की   चोट    से    इंसानियत   घायल   हुई,
                ज़िंदगी   इसकी   बचे   ऐसा   कोई   उपचार   कर।
               🌷
                                                         ---ओंकार सिंह विवेक
                                                          (सर्वधिकार सुरक्षित)

     चित्र-गूगल से साभार

November 8, 2021

शेरों में ढाल के

ग़ज़ल -- ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
बेशक  कई   जवाब   दिए  इक  सवाल  के,
पर उसके सब जवाब थे सचमुच कमाल के।

हज़रत  किया  था  हमने  तो आगाह बारहा,  
फिर भी शिकार हो गए तुम उसकी चाल के।

बतलाऊँ अपने  बारे में कुछ फिर मैं आपको,
बैठो  कभी  जो साथ  में, फ़ुर्सत निकाल के।
©️
सबकी नज़र में क्यों न हो आला मुक़ाम फिर,     
किरदार  को  वो रक्खे   हुए  हैं   सँभाल  के।

जो रात-दिन  मिलाएँ फ़क़त उनकी  हाँ में हाँ,
क्या  लग  रहे  हैं  हम  तुम्हें  ऐसे  ख़याल के।

बेदार  क्यों   न    हों  भला   सोयी  समाअतें,
मफ़हूम  लाए  हैं   नए , शेरों   में   ढाल  के।

दो  फूल क्या 'विवेक' मुक़द्दर  से  खिल गए,
बदले  हुए  हैं  देखिए  तेवर   ही   डाल   के।
        ---  ©️ओंकार सिंह विवेक

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नई ग़ज़ल!!! नई ग़ज़ल!!! नई ग़ज़ल!!!

असीम सुप्रभात मित्रो 🌷🌷🙏🙏 🌷🌱🍀🌴🍁🌸🪷🌺🌹🥀🌿🌼🌻🌾☘️💐 मेरी ग़ज़ल प्रकाशित करने के लिए आज फिर "सदीनामा" अख़बार के संपादक मं...