October 7, 2023

नई ग़ज़ल

नमस्कार मित्रो 🌹🌹🙏🙏

मशहूर शायर आदरणीय श्री ओमप्रकाश नूर साहब की मुहब्बतों के चलते प्रतिष्ठित पत्रिका/अख़बार 'सदीनामा' के ताज़ा अंक में मेरी एक और ग़ज़ल छपी है जिसे प्रतिक्रिया हेतु आपके साथ साझा कर रहा हूं।उसी पृष्ठ पर प्रसिद्ध ग़ज़लकार श्री देवेंद्र मांझी साहब की  ग़ज़ल भी प्रकाशित हुई है।श्री मांझी साहब को मुबारकबाद तथा 'सदीनामा' के संपादक मंडल का बहुत बहुत आभार।

नई ग़ज़ल -- --  ©️ ओंकार सिंह विवेक 
©️ 
शीशम  साखू   महुआ   चंदन  पीपल   देते हैं,
कैसी-कैसी  ने'मत   हमको   जंगल   देते   हैं।

वर्ना सब  होते  हैं  सुख  के   ही  संगी -साथी,
दुनिया में  बस  कुछ  विपदा  में संबल देते हैं।

रस्ता  ही भटकाते  आए  हैं  वो  तो अब तक,
लोग  न  जाने  क्यों  उनके  पीछे  चल देते हैं।
©️ 
आज बना  है मानव  उनकी ही जाँ का दुश्मन,
जीवन  भर  जो  पेड़  उसे  मीठे  फल  देते हैं।

मिलती है  कितनी  तस्कीन तुम्हें क्या बतलाएँ,
आँगन  के  प्यासे पौधों  को  जब  जल देते हैं।

कब तक सब्र का बाँध न टूटे प्यासी फसलों के,
धोखा   रह-रहकर   ये   निष्ठुर  बादल  देते  हैं।

किस  दर्जा  मे'यार  गिरा  बैठे  कुछ  व्यापारी,
ब्रांड  बड़ा  बतलाकर  चीज़ें   लोकल  देते  हैं।
                       ---©️ ओंकार सिंह विवेक













6 comments:

  1. शीशम साखू महुआ चंदन पीपल देते हैं,
    कैसी-कैसी ने'मत हमको जंगल देते हैं।
    उम्दा शायरी, पर लोकल सदा त्याज्य तो नहीं,

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    1. आभार आदरणीया। मेरे शेर से यह अर्थ बिल्कुल नहीं निकलता कि लोकल त्याज्य है।शेर सिर्फ़ यह कहता है कि बड़ा ब्रांड बताकर अर्थात झूठ बोलकर लोकल चीज़ें देते हैं जो ठीक नहीं है।लोकल बताकर लोकल देनें में कोई आपत्ति नहीं है।

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  2. बहुत बधाई … पर्यावरण का ख़्याल बहुत ज़रूरी है … दिगम्बर नासवा

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    1. उत्साहवर्धन हेतु आभार आदरणीय।

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