June 2, 2019

हक़ीक़त

ग़ज़ल-ओंकार सिंह विवेक
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क़द यहाँ औलाद का जब उनसे बढ़कर हो गया,
फ़ख़्र  से  ऊँचा  तभी  माँ-बाप  का सर हो गया।

जब  भरोसा  मुझको अपने बाज़ुओं पर हो गया,
साथ   मेरे   फिर  खड़ा  मेरा  मुक़द्दर  हो   गया।

मुब्तिला इस ग़म में अब रहने लगा वो रात-दिन,
क्यों  किसी का क़द यहाँ उसके बराबर हो गया।

बाँध  रक्खी  थीं  उमीदें  सबने  जिससे जीत की,
दौड़  से  वो  शख़्स  जाने  कैसे  बाहर  हो  गया।

ख़ून  है  सड़कों  पे  हर  सू और फ़ज़ा में ज़ह्र है,
देखते  ही  देखते  यह   कैसा   मंज़र   हो   गया।
----------ओंकार सिंह'विवेक'(सर्वाधिकार सुरक्षित)

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