August 31, 2024

उनका हर 'ऐब छुप ही जाना है



दोस्तो नमस्कार 🌷🌷🙏🙏
मेरा नया ग़ज़ल-संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" आप लोगों के आशीर्वाद से अब छपने के लिए प्रकाशक के पास जा चुका है। आशा है दो से तीन माह के अंदर पुस्तक आ जाएगी।
लीजिए प्रस्तुत है उसी प्रस्तावित ग़ज़ल-संग्रह से एक ग़ज़ल :

              रौशनी    का    यही   निशाना   है,

              तीरगी    को    मज़ा  चखाना   है।


             आस   टूटे  न   क्यों  युवाओं   की,

             शहर  में   मिल  न  कारख़ाना  है।


             भा   गई    है   नगर   की    रंगीनी, 

             अब  कहाँ  उनको  गाँव  आना  है।


             लोग   हैं    वो   बड़े    घराने    के, 

             उनका हर 'ऐब  छुप  ही  जाना है।


             वो सियासत  में आ  गए  जब  से,

             मालो-ज़र  का  कहाँ  ठिकाना  है।


            हमको  हर  ना-उमीद  के  मन  में,

            आस  का  इक  दिया  जलाना  है।


           और    उम्मीद   क्या   करें   उनसे,

            हम  पे   इल्ज़ाम  ही   लगाना  है।

                     ©️ ओंकार सिंह विवेक 
               (सर्वाधिकार सुरक्षित)



August 26, 2024

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की पूर्व संध्या पर उत्तर प्रदेश साहित्य सभा रामपुर इकाई की रंगारंग काव्यगोष्ठी



छेड़ो वह धुन आज फिर, हे ! गिरधर गोपाल

(श्री कृष्ण जन्माष्टमी की पूर्व संध्या पर रंगारग काव्यगोष्ठी) 

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भगवान विष्णु के आठवें अवतार योगीराज श्री कृष्ण के जन्म की अष्टमी का उत्साह इस समय पूरे देश में है।आम तौर से लोग दो दिन तक इस उत्सव को मनाते हैं।इस अवसर पर लोग व्रत- उपवास रखते हैं, श्री कृष्ण की लीलाओं की सुंदर झांकिया सजाते हैं।भगवान श्री कृष्ण के मंदिरों तथा लोगों के द्वारा घरों में में भव्य सजावट और पूजा के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की पूर्व संध्या(25अगस्त,2024)पर उत्तर प्रदेश साहित्य सभा की रामपुर इकाई की एक कवि गोष्ठी सभा के अध्यक्ष ओंकार सिंह विवेक के आवास

  सत्याविहार फेज-2 पर आयोजित की गई। काव्य गोष्ठी में अनेक उदीयमान तथा वरिष्ठ कवियों ने अवसर के अनुकूल भावपूर्ण रचनाएँ सुनाकर देर रात तक समां बांधे रखा।

कार्यक्रम राजवीर सिंह राज़ की सुंदर सस्वर सरस्वती वंदना से प्रारंभ हुआ। उसके पश्चात कवि पतराम सिंह ने देश प्रेम से ओतप्रोत अपनी सुंदर रचना प्रस्तुत की । उन्हें अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति पर भरपूर प्रशंसा और प्रोत्साहन मिला : 

     जागो  भारत  वीरो जागो यह  समय नहीं  है सोने का,

     दर्पण-सा मुखड़ा चमका दो इस भारत देश सलोने का।


अपनी भावपूर्ण छंद मुक्त रचनाओं के लिए जाने जाने वाले साहित्यकार जावेद रहीम ने अपनी रचना में आसमान का सुन्दर चित्रण करते हुए कहा :

            चाँद  ने पहन ली ओढ़नी  सितारों  की,

            बारात सजी है टिमटिमाते सितारों की।


सभा की स्थानीय इकाई के अध्यक्ष ग़ज़लकार ओंकार सिंह विवेक ने श्रीमद भगवतगीता के उपदेशों की महत्ता पर अपना यह शे'र प्रस्तुत किया :

           गीता के  उपदेशों  ने वो  संशय  दूर  किया,

            रोक रहा था जो अर्जुन को वाण चलाने से।


 उन्होंने श्री कृष्ण जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में अपना एक दोहा भी सुनाया जिसे काफ़ी पसंद किया गया :

             जिसको सुनकर मुग्ध थे, गाय गोपियाँ ग्वाल।

             छेड़ो वह धुन आज फिर, हे!गिरधर गोपाल।।

सभा के ऊर्जावान और उत्साही सचिव राजवीर सिंह राज़ ने अपने दमदार तरन्नुम में एक ग़ज़ल पेश की :

                 तुम  गए  तो  सोचते  ही रह गए,

                 दरमियां क्यों फा़सले ही रह गए।

अच्छी शायरी से अपनी पहचान बनाने वाले सभा के संयोजक सुरेंद्र अश्क रामपुरी ने अपनी कई ग़ज़लें सुनाईं। उनका यह मार्मिक शे'र देखिए :

             रोयी किसी की बेटी तो हम भी थे रोए ख़ूब,

             हमसे तो  उसकी रुख़सती  देखी  नहीं गई।

अपने दोहों से पहचान बनाने वाले गोष्ठी के मुख्य अतिथि राम किशोर वर्मा ने कहा :

          'ठाकुर' जी का द्वार हो,या ठाकुर का द्वार।

           दोनों दर तब पहुँचता, हो जाता लाचार।।


गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि शिवकुमार चंदन ने कन्हैया से कुछ इस प्रकार विनती की

              जग की कुटिलता से चंदन व्यथित आज,

              द्वार पे हो ठाड़ो कान्हा, आय के बचाय दे।

सूक्ष्म जलपान के बाद कार्यक्रम के समापन पर संयोजक सुरेन्द्र अश्क रामपुरी द्वारा सभी का आभार प्रकट किया गया।


गोष्ठी का संचालन स्थानीय इकाई के अध्यक्ष ओंकार सिंह विवेक तथा सचिव राजवीर सिंह राज़ ने संयुक्त रूप से किया।

--- ग़ज़लकार ओंकार सिंह विवेक 

अध्यक्ष उत्तर प्रदेश साहित्य सभा रामपुर इकाई 

कार्यक्रम की दैनिक जागरण,शाह टाइम्स समाचार पत्रों द्वारा सुंदर कवरेज के लिए हार्दिक आभार 🙏🙏 👇👇



August 23, 2024

जनसरोकार



नमस्कार दोस्तो 🌹🌹🙏🙏 आज फिर मेरे प्रस्तावित ग़ज़ल-संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" से एक ग़ज़ल प्रस्तुत है।
ग़ज़ल  ("कुछ मीठा कुछ खारा से") 
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              ©️ 
            अब  कहाँ  इसमें  पाकीज़गी  रह गई,
            मस्लहत  की  फ़क़त  दोस्ती  रह गई।
             
            दे   रही   हैं   गवाही   ये    नाकामियाँ,
            कुछ न कुछ कोशिशों में कमी रह गई।

            ठंड   तेवर   भला    कैसे   ढीले    करे,
            दोस्त! आधी  अभी  जनवरी  रह  गई।

           लोग  ज़ुल्मत  की  जयकार करने लगे,
           रौशनी   ये   ग़ज़ब   देखती  रह    गई।
                 
           कब  किसी की हुईं पूरी सब ख़्वाहिशें,
           एक    पूरी    हुई     दूसरी    रह   गई।

           मंच   पर    चुटकुले   और    पैरोडियाँ,
           आजकल  बस  यही शा'इरी  रह  गई।

           ज़ख़्म  पर  ज़ख़्म   इंसान   देता  रहा,
           अधमरी  होके   गंगा  नदी    रह   गई।
                     ©️ ओंकार सिंह विवेक 
           (सर्वाधिकार सुरक्षित) 


August 19, 2024

रूखी-सूखी खानी है



लीजिए मेरे प्रस्तावित ग़ज़ल-संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" से एक और ग़ज़ल पेश है आपकी ख़िदमत में :
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         ©️ 
          उनके  हिस्से   चुपड़ी  रोटी  बिसलेरी  का पानी है,
          और हमारी क़िस्मत,हमको रूखी-सूखी खानी है।

        जनता की  आवाज़  दबाने वालो इतना  ध्यान रहे,
       कल पैदल भी हो सकते हो आज अगर सुल्तानी है।

       प्यार लुटाया है मौसम ने जी भरकर उस पर अपना,
       ऐसे   ही   थोड़ी  धरती   की  चूनर  धानी-धानी  है।

       फ़स्ल हुई चौपट बारिश से और धेला भी पास नहीं,
       कैसे क़र्ज़  चुके बनिये  का  मुश्किल में रमज़ानी है।

       खिलने को घर के गमलों में चाहे जितने फूल खिलें,
       जंगल  के फूलों-सी  लेकिन  बात न उनमें आनी है।
 
       एक झलक पाना भी अब तो सूरज की दुश्वार हुआ,
      जाने  ज़ालिम  कुहरे  ने   ये  कैसी  चादर  तानी  है।

       बात न सोची जाए किसी की राह में  काँटे बोने की,
       ये  सोचें  फूलों  से   कैसे  सबकी  राह  सजानी  है।
                                           ©️ ओंकार सिंह विवेक

                                         (सर्वाधिकार सुरक्षित) 


August 11, 2024

चिंतन के बहु रंग

नमस्कार दोस्तो 🌹🌹🙏🙏
हाज़िर है मेरे प्रस्तावित ग़ज़ल-संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" से आज एक और ग़ज़ल 
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 एक   तो     मंदा    ये    कारोबार   का,
 और  उस    पर   क़र्ज़   साहूकार  का।

मान  लो   हज़रत ! तवाज़ुन  के  बिना,
है   नहीं   कुछ   फ़ाइदा   रफ़्तार  का।

आजकल  देता  हो  जो  सच्ची  ख़बर,
नाम   बतलाएँ   किसी   अख़बार का।

 जंग   क्या   जीतेंगे  सोचो , वो जिन्हें-
 जंग  से  पहले  ही  डर  हो  हार  का।

 फिर   किनारे   तोड़ने  पर   तुल  गई,
 क्या 'अमल  है  ये  नदी  की धार का?

तोड़ दी इसने तो मुफ़लिस  की  कमर,
कुछ   करें   महँगाई   की  रफ़्तार का।

 ऋण चुका सकता नहीं  कोई 'विवेक',
 उम्र  भर  माँ - बाप  के   उपकार का।
         --- ©️ ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित) 

    
   

August 5, 2024

करें साथियो आज कुछ, दोहों में संवाद

स्नेही मित्रो असीम सुप्रभात 🌷🌷🙏🙏
चूंकि ग़ज़ल मेरी लोकप्रिय विद्या है इसलिए मैं अक्सर आपसे अपनी ग़ज़लों के माध्यम से संवाद करता रहता हूं।यह संवाद कभी अपने इस ब्लॉग पर तो कभी Onkar Singh Vivek नाम से बनाए गए अपने ytube channel पर करता रहता हूं। मुझे इस बात का गर्व है कि दोनों ही platforms पर मुझे आपका स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त होता रहता है।
हिंदी काव्य में दोहा विधा से हम सब भली भांति परिचित हैं।दोहे की मारक क्षमता ग़ज़ब की होती है।१३ और ११ मात्राओं के तोड़ के साथ दोहे की दो पंक्तियों में रचनाकार जैसे गागर में सागर ही भर देता है। 
मैंने भी आज सोचा कि अपने कुछ दोहे आपकी अदालत में रखूँ।
आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा के साथ लीजिए प्रस्तुत हैं मेरे कुछ दोहे :

कुछ दोहे समीक्षार्थ 
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©️ 
हमने  दिन  को  दिन कहा,कहा रात को रात। 
बुरी  लगी  सरकार  को,बस इतनी सी बात।।

मन में उनके किस क़दर,भरा  हुआ  है खोट।
धर्म-जाति  के   नाम  पर,माँग  रहे  हैं  वोट।।

घर   में   जो   होने  लगी, बँटवारे   की  बात। 
चिंता  में   घुलने   लगे,बाबू   जी  दिन-रात।।

कर   में   पिचकारी  लिए,पीकर  थोड़ी  भंग। 
देवर   जी   डारन   चले,भौजाई   पर    रंग।।

महँगाई  की    मार   से, टूट   गई  हर  आस।
हल्कू की  इस  बार भी, होली  रही  उदास।।

लागत   भी    देते    नहीं, वापस   गेहूं- धान।
आख़िर किस उम्मीद पर,खेती करे किसान।।
©️ ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित) 





August 4, 2024

लीजिए पेश है फिर एक ------

सुप्रभात मित्रो 🌷🌷🙏🙏

पेश है आज एक और ग़ज़ल प्रस्तावित
"कुछ मीठा कुछ खारा" ग़ज़ल-संग्रह से
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©️ 
जब  से मुजरिम  पकड़के  लाए हैं,
फोन   थाने     के    घनघनाए   हैं।

ये  ही सिन्फ़-ए-ग़ज़ल का जादू है,
अच्छे-अच्छे  ग़ज़ल  पे  आए   हैं।  

फिर अँधेरों  से  यह  गिला  कैसा,
जब   दिये   ही   नहीं  जलाए  हैं।

उफ़ नहीं  की  मगर  कभी  हमने,
ज़ख़्म पर ज़ख़्म दिल ने खाए हैं।

देख   ली  उनके   हाथ   में आरी,
पेड़    यूँ   ही    न    थरथराए  हैं।

ग़म ही दर-पेश हैं  यूँ तो  कब  से,
फिर भी लब पर  हँसी सजाए हैं।

और   कुछ   देर   बैठिए  साहिब,
एक  मुद्दत   के   बाद   आए   हैं।
     ---©️ ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित) 

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