August 4, 2024

लीजिए पेश है फिर एक ------

सुप्रभात मित्रो 🌷🌷🙏🙏

पेश है आज एक और ग़ज़ल प्रस्तावित
"कुछ मीठा कुछ खारा" ग़ज़ल-संग्रह से
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©️ 
जब  से मुजरिम  पकड़के  लाए हैं,
फोन   थाने     के    घनघनाए   हैं।

ये  ही सिन्फ़-ए-ग़ज़ल का जादू है,
अच्छे-अच्छे  ग़ज़ल  पे  आए   हैं।  

फिर अँधेरों  से  यह  गिला  कैसा,
जब   दिये   ही   नहीं  जलाए  हैं।

उफ़ नहीं  की  मगर  कभी  हमने,
ज़ख़्म पर ज़ख़्म दिल ने खाए हैं।

देख   ली  उनके   हाथ   में आरी,
पेड़    यूँ   ही    न    थरथराए  हैं।

ग़म ही दर-पेश हैं  यूँ तो  कब  से,
फिर भी लब पर  हँसी सजाए हैं।

और   कुछ   देर   बैठिए  साहिब,
एक  मुद्दत   के   बाद   आए   हैं।
     ---©️ ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित) 

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