रौशनी का यही निशाना है,
तीरगी को मज़ा चखाना है।
आस टूटे न क्यों युवाओं की,
शहर में मिल न कारख़ाना है।
भा गई है नगर की रंगीनी,
अब कहाँ उनको गाँव आना है।
लोग हैं वो बड़े घराने के,
उनका हर 'ऐब छुप ही जाना है।
वो सियासत में आ गए जब से,
मालो-ज़र का कहाँ ठिकाना है।
हमको हर ना-उमीद के मन में,
आस का इक दिया जलाना है।
और उम्मीद क्या करें उनसे,
हम पे इल्ज़ाम ही लगाना है।
©️ ओंकार सिंह विवेक
उम्दा ग़ज़ल
ReplyDeleteआभार आदरणीया।
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