August 19, 2024

रूखी-सूखी खानी है



लीजिए मेरे प्रस्तावित ग़ज़ल-संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" से एक और ग़ज़ल पेश है आपकी ख़िदमत में :
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         ©️ 
          उनके  हिस्से   चुपड़ी  रोटी  बिसलेरी  का पानी है,
          और हमारी क़िस्मत,हमको रूखी-सूखी खानी है।

        जनता की  आवाज़  दबाने वालो इतना  ध्यान रहे,
       कल पैदल भी हो सकते हो आज अगर सुल्तानी है।

       प्यार लुटाया है मौसम ने जी भरकर उस पर अपना,
       ऐसे   ही   थोड़ी  धरती   की  चूनर  धानी-धानी  है।

       फ़स्ल हुई चौपट बारिश से और धेला भी पास नहीं,
       कैसे क़र्ज़  चुके बनिये  का  मुश्किल में रमज़ानी है।

       खिलने को घर के गमलों में चाहे जितने फूल खिलें,
       जंगल  के फूलों-सी  लेकिन  बात न उनमें आनी है।
 
       एक झलक पाना भी अब तो सूरज की दुश्वार हुआ,
      जाने  ज़ालिम  कुहरे  ने   ये  कैसी  चादर  तानी  है।

       बात न सोची जाए किसी की राह में  काँटे बोने की,
       ये  सोचें  फूलों  से   कैसे  सबकी  राह  सजानी  है।
                                           ©️ ओंकार सिंह विवेक

                                         (सर्वाधिकार सुरक्षित) 


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