March 10, 2024

यादें 'शशि' जी की

   यादें 'शशि' जी की
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मौत उसकी है करे जिसका ज़माना अफ़सोस,
यूं तो दुनिया में  सभी आए हैं  मरने के  लिए।
        -- महमूद रामपुरी
मृत्यु ही जीवन का सत्य है।हम सबको एक न एक दिन यह दुनिया छोड़कर जाना है।इस सत्य को जानते हुए भी
भले लोगों के दुनिया से रुख़सत होने पर बहुत अफ़सोस होता है। ऐसे लोग अपने परोपकार के कामों के कारण मरकर भी अमर हो जाते हैं। आदरणीय कल्याण कुमार जैन शशि जी एक ऐसे ही नेक दिल इंसान,हकीम तथा आशुकवि थे जिनके असमय परलोकवासी होने का बहुत दुःख होता है। महमूद रामपुरी साहब का ऊपर कोट किया गया शेर शायद शशि जी जैसे लोगों के लिए कहा गया हो।
शशि जी का जन्म जनपद रामपुर(उत्तर प्रदेश) में 8 मार्च,1908 को तथा देहावसान 9 सितंबर,1988 को हुआ था।
स्मृतिशेष शशि जी के साथ मुझे कई स्थानीय कवि गोष्ठियों में सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ।अत्यधिक वरिष्ठ कवि होने के कारण शशि जी अक्सर उन दिनों कवि गोष्ठियों की अध्यक्षता किया करते थे। वे हर कार्यक्रम में प्रत्येक कवि/शायर को बड़े ध्यान से सुना करते थे और व्यक्ति,प्रसंग तथा समय के अनुसार तुरंत रचित अपनी चार पंक्तियां सुनाकर महफ़िल लूट लेते थे। भाव और शिल्प के कुशल निर्वहन के साथ रामपुर में आशु कविता सुनाने का दौर तो जैसे शशि जी के साथ ही ख़त्म हो गया-सा लगता है।आज रामपुर के कवि समाज तथा श्रोताओं को शशि जी की कमी बहुत खलती है।मुझे याद आ रहा है,एक बार रामपुर की विश्व प्रसिद्ध रज़ा लाइब्रेरी में एक कवि सम्मेलन/मुशायरे का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम में शशि जी भी मंच पर विराजमान थे।संयोगवश मैं भी उस कार्यक्रम में उपस्थित था।कार्यक्रम में उठने-बैठने को लेकर कुछ नौजवानों ने वहां व्यवधान उत्पन्न करना प्रारंभ कर दिया।शशि जी ने उसी समय व्यवधान उत्पन्न करने वाले युवाओं को लक्ष्य करके अपनी आशु कविता की चार पंक्तियां सुनाईं। शशि जी की त्वरित कविता का भाव समझकर कुछ ही देर में सब चुप होकर बैठ गए और कार्यक्रम शांति पूर्वक चलने लगा। ऐसे थे कवि कल्याण कुमार जैन शशि जी।
शशि जी के साहित्य में हमें नैतिक मूल्यों, सिद्धांतों, शालीन आचरण तथा मानवीय संवेदनाओं की ज़बरदस्त पैरोकारी देखने को मिलती है। स्मृतिशेष शशि जी की कुछ पुस्तकों के नाम याद आ रहे हैं -- क़लम, ख़राद, मेरी आराधना,मुर्दा अजायबघर तथा देवगढ़ दर्शन एवम जैन समाज दर्पण आदि। क़लम और ख़राद पुस्तकें तो मेरी घरेलू लाइब्रेरी में अब तक मौजूद हैं जिन्हें मैंने कई- कई बार पढ़ा है। ख़राद की एक रचना में शशि जी एक जगह कहते हैं :
   जो  ख़राद पर चढ़े चमक उन हीरों में आई है।
उनकी सभी रचनाओं की भाषा बहुत सरल और सहज है जो आम आदमी की समझ में आसानी से आ जाती है।रचनाकार वही महान होता है जो कविता में अपने भावों और कला का ही प्रदर्शन न करे अपितु उसकी रचनाओं के कुछ सामाजिक सरोकार भी हों। शशि जी की अधिकांश रचनाएँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।इंसानियत की पैरवी करती हुई शशि जी की रचना की ये पंक्तियां देखें :
 मैं मानव हूं मानवता को मानूंगा महान वरदान,
आजीवन सम्मुख रक्खूंगा मानव का आदर्श महान।

शशि जी एक योग्य वैद्य भी थे। नब्ज़ देखकर पुराने से पुराने रोगों की चिकित्सा भी किया करते थे।मुझे याद है कि एक बार में भी नब्ज़ दिखाकर शशि जी से 
नुस्ख़ा बंधवाकर लाया था।
मैंने शशि जी की रचनाओं को इंटरनेट/सोशल मीडिया पर खोजने का प्रयास किया तो 'कविता कोश' पटल पर
उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी और उनकी दो बाल रचनाएँ देखने को मिलीं।यह देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।मेरी गुड़िया तथा दावतनामा शीर्षक से उपलब्ध इन दो रचनाओं में से एक ' दावतनामा' की चार पंक्तियां यहां उद्धृत हैं :
    कहा शेर ने टेलीफोन पर हलो! शिकारी मामा,
    भेज रहा हूं सालगिरह का तुमको दावतनामा।
    मामी,मौसी,मुन्ना, मंगू  सबको   लेकर   आना,
    मगर शर्त यह याद रहे  बंदूक़ साथ मत लाना।
                           ('पराग' जनवरी,1980)
शशि जी का साहित्य बच्चों और बड़ों सबको युगों-युगों तक प्रेरणा देता रहेगा। उनके असामयिक निधन से हुई क्षति की पूर्ति असंभव है। मैं अपनी इन चार पंक्तियों के माध्यम से स्मृतिशेष शशि जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए वाणी को विराम देता हूं :
     महफ़िलों   का    नूर   थे   शृंगार   थे,
    सबकी चाहत  थे  सभी  का  प्यार थे।
    कहते हैं आदर से 'शशि' जी सब जिन्हें,
    वो  अदब  के   इक  बड़े   फनकार  थे।
                       ©️ओंकार सिंह विवेक 

--- ओंकार सिंह विवेक
     ग़ज़लकार/समीक्षक/ब्लॉगर/कंटेंट राइटर


 

March 7, 2024

उसकी फाइल ही नीचे दबी रह गई



दोस्तो नमस्कार🌷🙏

जिन साहित्यिक कार्यक्रमों में तरही मिसरे दिए जाते हैं उनमें हिस्सेदारी का एक बड़ा फ़ायदा यह होता है कि इस बहाने रचना/ग़ज़ल का सृजन हो जाता है।उसमें एक चुनौती रहती है कि अमुक पंक्ति/मिसरे पर बहुत से साहित्यकार अभ्यास करेंगे और ग़ज़ल कहेंगे सो हमें भी कुछ न कुछ कहना ही चाहिए।इस सोच के साथ जब चिंतन की उड़ान शुरू होती है तो ग़ज़ल मुकम्मल हो ही जाती है।
किसी दी हुई पंक्ति पर रचना कहना काव्य की पुरानी परंपरा है।इस बहाने साहित्यकारों का सृजन समृद्ध होता है। अलग - अलग साहित्यकारों की रचनाएं पढ़कर उनकी फ़िक्र का भी अंदाज़ा हो जाता है।
हाल ही में एक साहित्यिक पटल पर एक मिसरा/पंक्ति दी गई थी उस पर हुई ग़ज़ल के कुछ शेर आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा के साथ पोस्ट कर रहा हूं :
नई ग़ज़ल के चंद अशआर 
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       फ़ाइलुन  फ़ाइलुन फ़ाइलुन  फ़ाइलुन
          ©️
       अब  कहाँ   इसमें  पाकीज़गी  रह गई,
        मस्लहत  की  फ़क़त  दोस्ती  रह गई।

        लोग  ज़ुल्मत  के  हक़  में खड़े हो गए,
        देखकर   दंग   ये ,रौशनी    रह     गई।
                 
        कब हुईं दिल की पूरी  सभी  ख़्वाहिशें,
         एक    पूरी    हुई    दूसरी    रह    गई।

         जिसने  बाबू  के   संकेत  समझे  नहीं,
         उसकी  फ़ाइल  ही  नीचे  दबी रह गई।

         मंच    पर    चुटकुले   और   पैरोडियाँ,
        आजकल  बस  यही  शायरी  रह  गई।
                  --- ©️ ओंकार सिंह विवेक


March 1, 2024

लोग कैसे किसी से मिलते हैं


सम्मानित सदीनामा पत्रिका में प्रकाशित हुई मेरी ग़ज़ल का आनंद लीजिए। इस बीच हिंदी देवनागरी में ग़ज़ल कहने वाले अपने साथियों के साथ कुछ जानकारी भी साझा करता हूं।
सब साथी को तो नहीं परंतु कुछ को मैंने ग़ज़ल में आज तुकांत या क़ाफिये के साथ राज़ तुकांत भी प्रयोग करते हुए देखा है।उच्चारण की दृष्टि से यह प्रयोग बिल्कुल उचित नहीं हैं। अत: हमें ऐसे प्रयोगों से हर संभव बचना चाहिए।
हिंदी वर्णमाला में ज ध्वनि के लिए एक अक्षर ज ही है। ज़ अर्थात ज के नीचे बिंदु/नुक्ता लगाकर जो उच्चारण किया जाता है उसके लिए अलग से कोई अक्षर नहीं है।जबकि उर्दू वर्णमाला में ज ध्वनि के लिए ج (जीम) अक्षर होता है तथा ज़ ध्वनि के लिए पांच अक्षर होते हैं।जिनमें उच्चारण की दृष्टि से थोड़ी-थोड़ी भिन्नता होती है। इसके बारे में विस्तार से फिर कभी चर्चा करेंगे।
आजकल जो नई ग़ज़ल मुकम्मल हो रही है चलते-चलते उसका मतला' और एक शेर देखिए :

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लोग   जब   सादगी   से   मिलते  हैं,
हम भी फिर ख़ुश-दिली से मिलते हैं।

राम    जाने   सियाह   दिल   लेकर,
लोग   कैसे   किसी   से  मिलते  हैं।
@ ओंकार सिंह विवेक 
(यह ग़ज़ल मेरे शीघ्र प्रकाश्य ग़ज़ल संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" में प्रकाशित होने वाली है)

February 28, 2024

रौशनी 'इल्म की

नमस्कार दोस्तो 🌹🌹🙏🙏

आजकल एक तरही मिसरे पर ग़ज़ल कहने की काविशें चल रही हैं।संयोग से अभी मतला' तो नहीं हो पाया है ग़ज़ल का। हाँ,दो शेर(अशआर) हो गए हैं जो आपकी प्रतिक्रिया हेतु प्रस्तुत कर रहा हूं।ग़ज़ल कहते वक्त अक्सर ऐसा होता है कि कभी मतला' पहले हो जाता है और फिर कई-कई दिन तक कोई शेर नहीं होता। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अचानक कई अच्छे शेर हो जाते हैं ग़ज़ल के परंतु मतला' नहीं सूझता। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मां शारदे की कृपा से चिन्तन की उड़ान अपने चरम पर होती है और एक सिटिंग में ही ग़ज़ल मुकम्मल हो जाती है। आप सम्मानित साहित्यकारों के साथ भी कभी न कभी ऐसा ज़रूर हुआ होगा।काव्य सृजन के दौरान हुए अपने अनुभवों को यदि आप भी साझा करेंगे तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।
फ़िलहाल आप नई ग़ज़ल के दो शेर मुलाहिज़ा करें,जल्द ही पूरी ग़ज़ल आपकी ख़िदमत में हाज़िर करूंगा :

@
आदमी   को   क़रीने   जीने   के,
'इल्म की  रौशनी  से  मिलते  हैं।

ख़ैरियत लेने  की  ग़रज़ से  नहीं,  
दोस्त अब काम ही से मिलते हैं।
       @ओंकार सिंह विवेक






February 23, 2024

शुचिता

शुचिता
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शुचिता एक भाव हैं जिसका शाब्दिक अर्थ है पवित्रता,शुद्धता, निष्कपटता या स्वच्छता। जीवन के हर क्षेत्र में शुचिता पूर्ण आचरण अपरिहार्य है।घर,परिवार,समाज या अन्य कहीं हमारा कार्य ,व्यवहार और आचरण शुचिता पूर्ण होना चाहिए।इसी में जीवन की सार्थकता है।
आज सबसे अधिक कमी शुचिता की यदि कहीं दिखाई देती है तो वह है राजनीति का क्षेत्र।बात चाहे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति की हो या फिर अंतरराष्ट्रीय धरातल पर हो रही राजनैतिक गतिविधियों की।हर जगह राजनीति से  सिद्धांत और नीतियां तो ऐसे  ग़ायब हो गए हैं जैसे गधे के सिर से सींग।झूठ,भ्रष्टाचार या कदाचार चाहे जिस का भी सहारा लेना पड़े राजनैतिक पार्टियों /नेताओं का एक मात्र लक्ष्य कुर्सी --- कुर्सी और बस कुर्सी ही रह गया है। आज सियासत में नीतियों,सिद्धांतों के लिए स्थान या समाज सेवा का भाव तो रह ही नहीं गया है। जो भी राजनीति की राह पकड़ता है उसका लक्ष्य होता है
 छल,फरेब, दल-बदल से अतिशीघ्र सत्ता पर पकड़ बनाकर अपना हित साधन करना।
कोई ज़माना था जब लोग विशुद्ध समाज और देश सेवा के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश करते थे।सियासत को कभी व्यापार की दृष्टि से नहीं देखा जाता था।
यदि हम भारतीय राजनीति में शुचिता की बात करें तो बरबस हमें स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी और अटल बिहारी वाजपेई जी की याद आ जाती है। शास्त्री जी की सादगी को कौन नहीं जानता।उन्होंने सादा जीवन उच्च विचार का पालन करते हुए प्रधानमंत्री के पद को बड़ी गरिमा प्रदान की थी। इसी प्रकार‘भारत रत्न’ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति में शुचिता के जो मानदंड स्थापित किए उन्हें कौन भूल सकता है।सरकार में सुशासन और संसद में सर्वमान्य सांसद के साथ ही संवेदनशील साहित्यकार, महान राष्ट्रभक्त और अजातशत्रु पूर्व प्रधानमन्त्री ‘भारत रत्न’ अटल बिहारी वाजपेयी जी का राजनीति में उनके विरोधी भी लोहा मानते थे। काश ! आज के नेता शुचिता और सिद्धांतों के मामले में ऐसे विराट व्यक्तियों के व्यक्तित्व से कुछ प्रेरणा ले पाएं।

आज स्थिति बिल्कुल उलट हो गई है।यह अवसरवादिता और धूर्तता की हद ही तो है कि लोग कपड़ों से भी अधिक तेज़ी से दल और पार्टियां बदलते हैं। घड़ी-घड़ी अपने बयान बदलते हैं और वोटों के लालच में सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने वाले बयान देते हैं।
हाल ही में हमारे एक पड़ोसी देश में हुए चुनाव में शुचिता की जो धज्जियाँ उड़ीं वे दुनिया ने देखीं।
काश ! ये स्थितियां बदलें और राजनीति में शुचिता और सिद्धांतों का महत्व बढ़े।अच्छी विचारधारा और सच्चे अर्थों में समाज सेवा का भाव रखने वाले लोग इस क्षेत्र में आएं। समाज ,देश और दुनिया में खुशहाली लाने का यही एक रास्ता है।
वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर मेरे दो कुंडलिया छंद का आनंद लीजिए :
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कुंडलिया-1

खाया  जिस  घर  रात-दिन,नेता जी ने  माल,

नहीं  भा  रही  अब  वहाँ, उनको  रोटी-दाल।

उनको  रोटी-दाल , बही   नव   चिंतन  धारा,

छोड़   पुराने   मित्र , तलाशा   और   सहारा।

कहते  सत्य  विवेक,नया  फिर  ठौर  बनाया,

भूले  उसको  आज ,जहाँ  वर्षों  तक खाया।        

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कुंडलिया-2

जिसकी  बनती  हो  बने, सूबे  में  सरकार,

हर  दल   में  हैं  एक-दो, उनके  रिश्तेदार।

उनके   रिश्तेदार, रोब   है   सचमुच  भारी,

सब   साधन  हैं  पास,नहीं  कोई  लाचारी।

अब उनकी दिन-रात,सभी से गाढ़ी छनती,

बन जाए सरकार,यहाँ हो  जिसकी बनती।

      @ओंकार सिंह विवेक 


सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ 👈👈


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