August 31, 2025

पुस्तक समीक्षा -'गीत सागर' (काव्य-संग्रह)


                           पुस्तक समीक्षा 

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                 कृति : 'गीत सागर ' (काव्य-संग्रह) 

                 कृतिकार : राम रतन यादव रतन 

   प्रकाशक :विधा प्रकाशन,उधम सिंह नगर, उत्तराखंड 

                 प्रकाशन वर्ष : 2023 मूल्य : 175 रुपए 

 पुस्तक परिचय प्रदाता/समीक्षक : ओंकार सिंह विवेक 


साहित्यकार केवल स्वांत: सुखाय  ही सृजन नहीं करता है अपितु उसका मौलिक चिंतन एवं सृजन समाज को दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य भी करता है। काव्य की अनेक विधाओं जैसे गीत, मुक्तक, दोहा,कुंडलिया, घनाक्षरी तथा सवैया आदि में काव्यकार अपने भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। गीत की जहां तक बात है उसमें मुखड़े के साथ तीन या चार तक अंतरे होते हैं। गीत प्रारंभ से अंत तक एक ही विषय को विस्तार देते हुए रचा जाता है। शब्द सामंजस्य, शब्द चयन एवं यति-गति के साथ लयात्मकता गीत  की पहली शर्त है। यदि गीतों में प्रतीक, बिंब और अलंकार, मुहावरे आदि भी प्रयोग किए जाएं तो गीत  की ख़ूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं। 

कुछ वर्ष पहले रामरतन यादव रतन  का पहला काव्य संग्रह 'काव्य ज्योति' के नाम से आया था जिसे पढ़ने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ था। 'काव्य ज्योति' में विभिन्न विषयों पर रतन जी की भावना प्रधान संभावनाएं जगाती अच्छी रचनाएं पढ़ने में आई थीं ।अब 'गीत सागर' के नाम से रतन जी की दूसरी कृति मेरे सामने है।इसमें रतन जी की 55 रचनाएं संकलित हैं 'गीत सागर' को उन्होंने अपने स्वर्गीय माता एवं पिता के श्री चरणों में समर्पित किया है । श्री रतन जी के माता-पिता आज देवलोक से अपने पुत्र की यह उपलब्धियां देखकर निश्चित ही प्रसन्नता का अनुभव कर रहे होंगे। 


कवि ने 'गुणों का उत्तम प्रसार दो मां,हमारे अवगुण निवार दो मां' कहते हुए सरस्वती की आराधना से अपने गीत संग्रह का  शुभारंभ किया है। सरस्वती वंदना के अंत में एक रचनाकार के लिए क़लम की महत्ता को प्रतिपादित करता हुआ एक सुंदर मुक्तक भी हमें पढ़ने को मिलता है-- 


क़लम हथियार है अपना, क़लम अधिकार है अपना, 

क़लम ही सार  है अपना, क़लम आधार है अपना।

क़लम से ही जगत में हम सभी सम्मान पाते हैं,

क़लम श्रृंगार है अपना, क़लम संसार है अपना।

व्यक्ति की धार्मिक एवं आध्यात्मिक आस्थाएं नि:संदेह उसे मानसिक शांति प्रदान करती हैं। कवि की मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रति गहरी श्रद्धा ने उनसे एक सुंदर भजन सृजित कराया है जिसकी कुछ पंक्तियों का आनंद लीजिए 


कृपा प्रभु राम की जिस पर सफलता खूब पता है, 

भजे प्रभु राम को मन से भंवर से पार जाता है। 

पुस्तक में संकलित एक सुंदर बाल गीत की कुछ पंक्तियां देखिए 

चंदा छुपा डूब गए तारे, लाल हमारे अब उठ जा रे ।

पूरब में छाई है लाली, उठकर निरख नज़ारे सारे। 

वातावरण सुखद है प्यारे, लाल हमारे अब उठ जा रे। 

इन पंक्तियों को पढ़कर हमें प्रसिद्ध कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय जी की कविता 'उठो लाल अब आंखें खोलो, पानी लाई हूं मुंह धो लो ' का सहसा ही स्मरण हो उठता है। 


गीतों के साथ-साथ पुस्तक में बीच-बीच में महत्वपूर्ण विषयों पर मुक्तकों के माध्यम से भी कवि ने अपनी बात कही है। इस प्रयोग ने पुस्तक को और निखार दे दिया है। प्यार और समर्पण की भावना को बल देता हुआ एक सुंदर मुक्तक  देखिए इस पुस्तक से 

मोहब्बत का मधुर एहसास यदि इंसान पा जाए, 

अंधेरी रात में भी वह मिलन के गीत गा जाए। 

मधुर रिश्ता समर्पण का चले यदि भावना के सँग ,

दिलों के बाग़ में फ़स्ले- बहाराँ गुल खिला  जाए। 

जिन्होंने हमें यह अनमोल जीवन दिया, परवरिश की, पढ़ा- लिखा कर किसी किसी योग्य बनाया, उन मां-बाप का ऋण कभी नहीं चुकाया जा सकता। इसी भावना को लेकर कवि ने माता-पिता को समर्पित सुंदर गीत सृजित किया है 

गहरी हों कितनी भी नदियां, हम कश्ती पतवार बनेंगे,

मात- पिता की सेवा को हम सहज- सुलभ हर बार बनेंगे। 

जब भी जो कुछ उनसे मांगा सब हमको उपलब्ध कराया, 

श्रम- सीकर से सींच - सींचकर हमें जगत में योग्य बनाया। 

है कर्तव्य हमारा उनके सपनों का संसार बनेंगे, 

मात-पिता की सेवा को हम सहज- सुलभ हर बार बनेंगे। 


आज की स्वार्थी दुनिया में नाते - रिश्तों में वह अपनापन कहां बचा है। अब तो लोग सिर्फ़  मतलब के लिए संबंध बनाते हैं और उन्हें बढ़ाते हैं। ऐसी बातों से जब कवि  रतन का मन व्यथित होता है तो वह कह उठते हैं 

जीवन की आपाधापी में जीना अब दुश्वार हो गया, 

संबंधों में प्रेम कहां है स्वारथ का संसार हो गया।

चूंकि कवि राम रतन यादव रतन उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जनपद से संबंध रखते हैं जहां की आंचलिक भाषा भोजपुरी है, सो प्रस्तुत पुस्तक में कई रचनाएं हमें भोजपुरी में भी देखने को मिलती है। गांव के बदले हुए हालात पर चिंता प्रकट करते हुए भोजपुरी में कवि कहता है 

खेतन- खेतन प्लाट कट गइल, मनई सब हलकान भइल,

भाग- भाग सब शहर जात बा, गंउबा अब वीरान भइल। 

जैने खेतवा में है  भइया सरसों अरहर लहरात रहल, 

आज समझ में ना हीआवत ऊंहवा उठ गइल बड़ा महल। 


कवि की लेखनी किसी एक विषय तक सीमित नहीं रहती। उसकी दृष्टि हर दृश्य, परिदृश्य और विषय पर पड़ती है और वह भी एक ख़ास अंदाज़ में। कवि  रतन ने प्रकृति चित्रण, देश प्रेम, बाल जीवन तथा सामाजिक परिवेश जैसे जीवन से जुड़े सभी पहलुओं को अपने काव्य सृजन का माध्यम बनाया है। पुस्तक की भाषा बहुत सरल है।भाषा के क्लिष्ट बंधनों में न बंधते हुए कवि ने आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है जो एक अच्छी बात है। इतना ही नहीं कवि ने अन्य भाषा के शब्द,जो आम बोलचाल में प्रयुक्त किए जाते हैं का भी खुले दिल से प्रयोग किया है। कवि की बाल कविताओं में जो प्रवाह दिखाई देता है वह भविष्य में उनके एक अच्छे बाल कवि होने की तरफ़  इशारा करता है। 


'गीत सागर' काव्य संग्रह में भावनाओं का सैलाब दिखाई पड़ता है, जिसमें सहज हृदय कवि ने शिल्प को साधने का सफल प्रयास किया है। कवि की पहली कृति 'काव्य ज्योति' भी मेरी नज़र से गुज़री थी। उससे 'गीत सागर'  की तुलना करके मैं  कह सकता हूं कि कवि का सृजन उत्तरोत्तर उत्तमता की ओर अग्रसर है। थोड़ी- बहुत टंकण त्रुटियां जो आमतौर पर अक्सर पुस्तकों में रह जाती हैं वह इस काव्य संकलन में भी मौजूद हैं। हिंदी छंदों में मात्रा पतन तथा तुकांत श्रेष्ठता, शब्द चयन आदि की जहां तक बात है, मानक हिंदी काव्य के पक्षधर विद्धजन कवि रतन जी से  भविष्य में और बेहतर की उम्मीद कर सकते हैं। 


मुझे आशा है की संभावनाओं से भरे प्रिय कवि राम रतन यादव रतन जी की यह काव्य कृति 'गीत सागर' काव्य जगत में भरपूर स्नेह पाएगी।मैं उनके सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करते हुए स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जी के इस शेर के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं :

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

काव्य सृजन की यह आग कवि रतन के सीने में यूं ही जलती रहे इसी कामना के साथ।

---- ओंकार सिंह विवेक 

साहित्यकार /समीक्षक/ कंटेंट राइटर 


      'गीत सागर' (काव्य-संग्रह) समीक्षा 🌹🌹👈👈










 



August 29, 2025

पुस्तक परिचय/समीक्षा- 'बीत गया है जैसे युग' (ग़ज़ल-संग्रह)

          

                           पुस्तक समीक्षा 

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       कृति : 'बीत गया है जैसे युग' ग़ज़ल-संग्रह 

       कृतिकार :सुरेंद्र कुमार सैनी 

       प्रकाशक :अमृत प्रकाशन शाहदरा दिल्ली 

        प्रकाशन वर्ष : 2021 मूल्य : 275 रुपए 

 पुस्तक परिचय प्रदाता/समीक्षक : ओंकार सिंह विवेक 

साहित्यकार के सृजन के पीछे कोई न कोई प्रेरणा अवश्य रही होती है। वह प्रेरणा प्रेमी/प्रेमिका, घर- परिवार,समाज या देश की स्थिति, कहीं से भी प्राप्त हो सकती है। इस प्रेरणा को आधार बनाकर अपने गहन चिंतन की उड़ान से लेखक /कवि बड़े-बड़े गद्य और काव्य ग्रंथों की रचना कर देते हैं। आज हम ऐसे ही एक वरिष्ठ कवि के रचनाकर्म से आपको रूबरू कराना चाहते हैं जिन्होंने अपनी धर्मपत्नी के असामयिक निधन से उपजी पीड़ा को आधार बनाकर विरह भावनाओं पर 'बीत गया है जैसे युग' शीर्षक से एक बहुत मार्मिक ग़ज़ल संग्रह का सृजन किया है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूं रुड़की ,उत्तराखंड निवासी वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेंद्र कुमार सैनी साहब की। 


कुछ समय पूर्व दिल्ली के एक साहित्यिक समारोह में सैनी जी से मुलाक़ात  हुई थी।बातचीत करने पर मैंने उनको बहुत संवेदनशील, भावुक  तथा निश्छल पाया। सैनी साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह 'बीत गया है जैसे युग' इस समय मेरे हाथ में है।


 ग़ज़ल संग्रह को आधोपांत पढ़कर मैं रचनाकार की विरह वेदना को अच्छी तरह समझ पा रहा हूं। अपनी विरह वेदना को शेर दर शेर, ग़ज़ल दर ग़ज़ल सैनी जी ने जो मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति दी है उसको आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

अपने प्रिय की स्मृतियों में तड़पते हुए कवि की मनोदशा को सैनी जी के इस शेर से भली भांति बात समझा जा सकता है- 

   जैसे पानी के बिना रेत पे तड़पे मछली, 

  इस तरह बिन तेरे जीवन को बिताया मैंने। 


यह ग़ज़ल संग्रह ऐसे तमाम शेर समेटे हुए है जो उपजे तो रचनाकार की व्यक्तिगत पीड़ा से हैं परंतु पढ़ते-पढ़ते पाठक को अपने हृदय की पीड़ा से जुड़े हुए लगने लगते हैं। शेरों /ग़ज़लों  में छुपे हुए मर्म को महसूस करके पाठक अनायास ही रचनाकार से निजता का संबंध बना लेता है। इसी पृष्ठभूमि में कुछ शेर देखें- 

 कभी इन आंसुओं को नीर की धारा नहीं कहना, 

किसी के प्यार की सौग़ात को झूठा नहीं कहना।


निश्छल प्रेम की एक और बानगी देखिए - 

मैं तेरा नाम आज तक पुकारता रहा, 

वो लौ जो बुझ गई उसे निहारता रहा। 

ये शेर और देखें जिनमें कामना और विवशता का अद्भुत सामंजस्य दिखाई देता है - 

घर मेरा काश! एक पल को फिर, 

तेरी मुस्कान से बहल जाता।

दिल को मेरे ख़ुशी बड़ी मिलती,

 यम का जो एक वार टल जाता ।

जीवन की सच्चाई और दर्शनिकता भरा  यह शेर भी देखें - 

हम दोनों के बीच यह दूरी तब तक है, 

माटी का घट जब तक टूट नहीं जाता ।

विरह वेदना से दिल में उभरा दर्द और उस दर्द में कही गई ग़ज़लें, यही अब जैसे कवि सुरेंद्र कुमार सैनी जी का जीवन संसार हो गया है। यह मार्मिक पंक्तियां भी देखिए - 

बिन तुम्हारे हैं ज़िंदगी ऐसे ,

फूल से ख़ुशबू हो जुदा जैसे।

इस जहां में है हर ख़ुशी ऐसे,

फूल कांटों में हो खिला जैसे ।


सैनी जी की ग़ज़ल का यह मार्मिक शेर पढ़कर किसकी पलकें न भीग जाएंगी भला - 

उसके कपड़ों वाला बक्सा जब-जब भी खोला है मैंने, 

माज़ी की यादों का सागर मेरे दिल में लहराया है।


हर व्यक्ति के मन में सुनहरे भविष्य और नई आशाओं के न जाने कितने सपने पल रहे होते हैं परंतु विधि के विधान के आगे आदमी कैसे विवश हो जाता है,रचनाकार के इस शेर से भली भांति समझा जा सकता है - 

कौन भला जीतेगा अपनी क़िस्मत से ,

अपनी क़िस्मत से जब जीत न पाए राम ।

'बीत गया है जैसे युग' की अधिकांश ग़ज़लों में विरह के प्रणय भाव की जो सहज और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति की गई है वह नि:संदेह ही ग़ज़ल प्रेमियों को अभिभूत करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। एक और शेर दृष्टव्य है :

अब न वो आएंगे वापस यह तो सच है लेकिन, 

उनका साया - सा बुलाता है तो हंस देता हूं।

इस शेर में 'साया - सा बुलाता है' में जो मर्मभेदी भाव छुपा है वह पाठक के दिल में उतर जाता है।जो अपना कभी न लौटकर आने के लिए अनंत की यात्रा पर चला गया उसकी याद भला कैसे न आएगी इस शेर को पढ़कर। इसी ग़ज़ल  का एक और शेर भी देखें - 

सबकी सांसों पे यहां रहता है यम का पहरा,

दंभ फिर कोई दिखाता है तो  हँस देता हूं।

कितने शेर कोट किए जाएं इस ग़ज़ल संग्रह के,हर शेर अपने आप में विरह वेदना और प्रणय भाव का जैसे एक समुंदर ही समेटे हुए है। सैनी जी की इन ग़ज़लों  की ख़ूबी यह है कि यह अपनी सरल भाषा और रवानी के चलते हर किसी के दिल में उतरने की क़ूवत रखती हैं। ग़ज़लों में कहीं कोई बनावट दिखाई नहीं देती। सैनी जी आम बोलचाल की भाषा में अपने शेरों के माध्यम से पाठक से सीधे संवाद करते हुए दिखाई पड़ते हैं।

मेरा सौभाग्य है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय सुरेंद्र कुमार सैनी जी की ग़ज़लों को पढ़ने और उन पर अपने विचार साझा करने का अवसर मिला।मैं सैनी जी को इतनी सहज और शाश्वत प्रणय भावना और अपनी विरह वेदना को ग़ज़लों में ढालकर हमें सौंपने के लिए हार्दिक बधाई देता हूं और ईश्वर से कामना करता हूं कि वह उन्हें दीर्घायु प्रदान करें ताकि भविष्य में हमें सैनी जी की और भी सुंदर काव्य कृतियां पढ़ने को मिलें। अंत में किसी अज्ञात शायर का यह शेर सैनी जी को समर्पित करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं :

अजब लहजा है उसकी गुफ़्तगू का, 

ग़ज़ल  जैसी  ज़बाँ वो  बोलता  है। 

---- ओंकार सिंह विवेक 

ग़ज़लकार /समीक्षक/ कंटेंट राइटर 


पुस्तक समीक्षा 🌹🌹





 



August 16, 2025

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं 🌹🌹





मित्रो श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पावन पर्व की आप सभी को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं 🌹🌹🙏🙏
    आ जाओ हे नंदलला तुम आ जाओ,
    आज  भी  राधा  टेरे  है  बरसाने  में।
                 -- ओंकार सिंह विवेक 
आज ही के दिन योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने अधर्म के समूल नाश हेतु धरा पर अवतार लिया था। योगीराज की लीलाएं जीवन जीने की कला सिखाती हैं। श्री कृष्ण के 'गीता' में दिए गए उपदेश हमें सुख-दुःख में समभाव रखते हुए कर्म किए जाने की प्रेरणा देते हैं। जब युद्ध भूमि में अपने संबंधियों को देखकर अर्जुन ने युद्ध लड़ने से इंकार कर दिया था तो वह 'गीता' का ज्ञान ही था जिसने उन्हें अपने वास्तविक कर्तव्य का बोध कराया और वह धर्मयुद्ध के लिए तैयार हुए।
आइए श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने हेतु दिए गए उपदेशों को आत्मसात करते हुए हर्षोल्लास के साथ श्री कृष्ण जन्माष्टमी मनाएं।

जय श्री कृष्ण 🌹🌹🙏🙏

श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर कहे गए मेरे कुछ दोहों का आनंद लीजिए :
दोहे : श्री कृष्ण जन्माष्टमी 
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         -- @ओंकार सिंह विवेक 
लिया   द्वारकाधीश  ने,जब   पावन   अवतार।
स्वत: खुल  गया  कंस  के,बंदीगृह  का  द्वार।।

काम न आई  कंस  की, कुटिल एक भी  चाल।
हुए कृष्ण जी अवतरित,बनकर उसका काल।।

बाल  रूप  में   आ   गए, उनके   घर  भगवान।
नंद-यशोदा   गा   रहे,मिलकर   मंगल    गान।।

जिसको  सुनकर  मुग्ध थे,गाय-गोपियाँ-ग्वाल।
छेड़ो वह  धुन आज  फिर ,हे गिरिधर गोपाल।।
  
दुष्टों   का   कलिकाल  के, करने    को   संहार।
चक्र सुदर्शन  कृष्ण   जी, पुन: लीजिए   धार।।

कर्मयोग   से    ही   बने, मानव   सदा   महान।
यही   बताता   है   हमें, गीता   का   सद्ज्ञान।।

लेते   रहिए   नित्य प्रति, वंशीधर   का    नाम।
बन   जाएंगे    आपके, सारे    बिगड़े    काम।।
                              @ओंकार सिंह विवेक


August 15, 2025

देश वासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं🌹🌹


            (चित्र गूगल से साभार)

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समस्त देश वासियों को राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌹🌹 
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक एक आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में हमने जो उपलब्धियां प्राप्त की हैं उसके लिए सबको बधाई। निःसंदेह हम दुनिया को अपनी एकजुटता का परिचय देते हुए आगे भी तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहेंगे।
जय हिन्द!जय भारत!🇧🇮🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

इस अवसर पर तिरंगे की शान में सृजित एक मुक्तक आपकी अदालत में पेश कर रहा हूँ :

वीर   शहीदों  की   गाथा   का  गान   तिरंगा  है।

हर  भारतवासी    का    गौरव-मान   तिरंगा   है,

गर्व न हो क्यों आख़िर हमको इस पर बतलाओ,

सारे  जग   में  भारत   की  पहचान   तिरंगा  है।

                          --- ओंकार सिंह विवेक 

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     हर घर तिरंगा 🇮🇳🇮🇳🇮🇳🌹🌹🙏🙏👈

August 12, 2025

कविता में ढालकर

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कुछ घटनाओं और परिस्थितियों को देकर जैसा चिंतन किया उसे दोहों में ढालकर आपकी अदालत में पेश कर रहा हूँ, प्रतिक्रिया अवश्य दीजिए 🙏

जो  सूरज  प्रतिदिन  यहाँ, उगल  रहा  था  आग।

उमड़े    बादल   देखकर,गया  अचानक   भाग।।

क्या  दिन  थे  जब  गाँव  में,बरगद पीपल नीम।

होते   थे   सबके  लिए,घर   के    वैद्य-हकीम।।

                         ©️ ओंकार सिंह विवेक


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     अब तो बस पिंजरा है उसमें ------🌹🌹👈👈


August 7, 2025

काव्य में सामयिक संदर्भ

कवि/रचनाकार आम आदमी से भिन्न दृष्टि से चीज़ों/घटनाओं को देखता है और उसे अपनी रचनाओं में ऐसे नज़रिए से पेश करता है कि सामने वाला आह या वाह करने को विवश हो जाता है।मानवीय संवेदनाओं के गिरते स्तर और प्रकृति के साथ मानव के अतिरेकी व्यवहार को लेकर दो दोहे हुए जो आपकी प्रतिक्रिया के लिए सादर प्रस्तुत हैं।
आज के दोहे 
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जंगल  नदी  पहाड़  को, करता   रहा  निढाल।
ले  अब  तू  भी  देख  ले,मानव  अपना हाल।।

रोने   की   हो  बात   तो,हँस   पड़ते  हैं  लोग।
किस सीमा तक बढ़ गए,आज मानसिक रोग।। 
           ©️ओंकार सिंह विवेक

August 4, 2025

महिमा सावन की



दोस्तो नमस्कार 🌷🌷🙏🙏

आज श्रावण मास का आख़िरी सोमवार है।श्रद्धालु भोले बाबा को कांवर चढ़ाने को लेकर अति उत्साहित हैं। हाइवेज़ पर कांवड़ियों की भारी भीड़ चल रही है।जगह- जगह उनके सम्मान में भंडारे चल रहे हैं। पूरा वातावरण श्रद्धा तथा उल्लास से भरा हुआ है।
सावन मास में रिमझिम वर्षा से यों तो हर और हरियाली की निराली छटा दिखाई दे रही है परंतु सावन की वर्षा का एक दूसरा रूप भी दिखाई दे रहा है।कहीं बारिश अनुकूल है तो कहीं अति जलवृष्टि से भयानक तबाही भी मची है। कहने को तो यह बारिश का मौसम है परंतु कुछ जगह सूखे के हालत भी बने हैं।इन्हीं सब विरोधाभासों को लेकर एक मुक्तक कहा है।
अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य ही अवगत कराएं 🙏

            मुक्तक 

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वर्षा का दिन रात कहीं  पर तांडव जारी है,

और  कहीं खेती-बाड़ी  पर  सूखा भारी है।

संग  धरा  के जो  ऐसा  बर्ताव  करे  है  तू,

श्रावण माह बता किसने तेरी मति मारी है।

          -----ओंकार सिंह विवेक 

   (सर्वाधिकार सुरक्षित) 


         काव्य की धारा 🌹🌹🌷🌷👈


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उत्तर प्रदेश साहित्य सभा रामपुर इकाई की नौवीं काव्य गोष्ठी संपन्न

              अपने सोने को फिर गंगू टूटी खाट बिछाता है                **********************************...