हाज़िर है मेरी एक और ग़ज़ल जिसमें कुछ शेर पर्यावरण को लेकर भी हो गए हैं:
नई ग़ज़ल -- -- ©️ ओंकार सिंह विवेक
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शीशम साखू महुआ चंदन पीपल देते हैं,
कैसी-कैसी ने'मत हमको जंगल देते हैं।
वर्ना सब होते हैं सुख के ही संगी -साथी,
दुनिया में बस कुछ विपदा में संबल देते हैं।
रस्ता ही भटकाते आए हैं वो तो अब तक,
लोग न जाने क्यों उनके पीछे चल देते हैं।
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आज बना है मानव उनकी ही जाँ का दुश्मन,
जीवन भर जो पेड़ उसे मीठे फल देते हैं।
मिलती है कितनी तस्कीन तुम्हें क्या बतलाएँ,
आँगन के प्यासे पौधों को जब जल देते हैं।
कब तक सब्र का बाँध न टूटे प्यासी फसलों के,
धोखा रह-रहकर ये निष्ठुर बादल देते हैं।
किस दर्जा मे'यार गिरा बैठे कुछ व्यापारी,
ब्रांड बड़ा बतलाकर चीज़ें लोकल देते हैं।
---©️ ओंकार सिंह विवेक
Bahut khoobsurat ghazal,vah!
ReplyDeleteDhanywaad
Deleteमिलती है कितनी तस्कीन तुम्हें क्या बतलाएँ,
ReplyDeleteआँगन के प्यासे पौधों को जब जल देते हैं।
वाह!! बेहतरीन ग़ज़ल
आभार आदरणीया।
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