March 25, 2025

फिर एक नई ------

एक छोटी बहर की हल्की-फुल्की ग़ज़ल जो 
 पिछले कई दिनों से ज़ेहन में चल रही थी :
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मिलने    में    दुश्वारी   है,
वैसे     आपसदारी     है।

इसकी  टोपी उसके  सर,
क्या उसकी फ़नकारी है।

दुश्मन  दाना  है  तो क्या,
अपनी   भी   तैयारी   है।

तनहा है  सच्चा  लेकिन,
सब झूठों  पर  भारी  है।

'आलीजाह के पाँव  पड़े,
कुटिया  धन्य  हमारी  है।

पहले  क्या  थे, ये छोड़ो,
अब  उनकी  सरदारी है।

ध्यान  यक़ीनन  खींचेगा,
शे'र   अगर   मे'यारी  है।
 ©️ओंकार सिंह विवेक 

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