ग़ज़ल
****
©️
लोग जब सादगी से मिलते हैं,
हम भी फिर ख़ुश-दिली से मिलते हैं।
आदमी को क़रीने जीने के,
'इल्म की रौशनी से मिलते हैं।
ख़ैरियत लेने की ग़रज़ से नहीं,
दोस्त अब काम ही से मिलते हैं।
आस करते हैं जिनसे नरमी की,
उनके लहजे छुरी-से मिलते हैं।
राम जाने सियाह दिल लेकर,
लोग कैसे किसी से मिलते हैं।
वो रिटायर हैं नौकरी से मगर,
आज भी अफ़सरी से मिलते हैं।
दिल को नाकामियों के बोझ 'विवेक',
हौसलों की कमी से मिलते हैं।
©️ ओंकार सिंह विवेक
वो रिटायर हैं नौकरी से मगर,
ReplyDeleteआज भी अफ़सरी से मिलते हैं।
बहुत खूब !
आभार आदरणीया।
Delete