December 20, 2024

आज एक सामयिक नवगीत !


सुप्रभात आदरणीय मित्रो 🌹 🌹 🙏🙏

धीरे-धीरे सर्दी ने अपने तेवर दिखाने प्रारंभ कर दिए हैं।
मौसम के अनुसार चिंतन ने उड़ान भरी तो एक नवगीत का सृजन हुआ था इन्हीं दिनों पिछले वर्ष।आपकी प्रतिक्रिया हेतु प्रस्तुत है वह गीत :

आज एक नवगीत : सर्दी के नाम

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      --  ©️ओंकार सिंह विवेक

छत पर आकर बैठ गई है,

अलसाई-सी धूप।

सर्द हवा खिड़की से आकर,

मचा रही है शोर।

काँप रहा थर-थर कुहरे के,

डर से प्रतिपल भोर।

दाँत बजाते घूम रहे हैं,

काका रामसरूप।

अम्मा देखो कितनी जल्दी,

आज गई हैं जाग।

चौके में बैठी सरसों का,

घोट रही हैं साग।

दादी छत पर  ले आई हैं,

नाज फटकने सूप।

आए थे पानी पीने को,

चलकर मीलों-मील।

देखा तो जाड़े के मारे,

जमी हुई थी झील।

करते भी क्या,लौट पड़े फिर,

प्यासे वन के भूप।

    ---  ©️ओंकार सिंह विवेक



2 comments:

  1. लाजवाब गीत है!👍👍💐💐

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    1. जी बेहद शुक्रिया आपका।

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