तरही ग़ज़ल
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©️ ग़ज़ल -- ओंकार सिंह विवेक
काश! ऐसा दयार आ जाए,
गुलशनों की क़तार आ जाए।
क्या मज़ा कश्तियाँ चलाने का,
जब नदी में उतार आ जाए।
अब ये मज़लूम जाग उट्ठे हैं,
होश में ताजदार आ जाए।
मश्क़ से जी चुरा के ये ख़्वाहिश,
शायरी में निखार आ जाए।
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ख़्वाब में भी अगर दिखे पानी,
प्यास को कुछ क़रार आ जाए।
जीतने का जुनूँ न कम होगा,
लाख हिस्से में हार आ जाए।
आप जैसे बड़ों की महफ़िल में,
क्या भला ख़ाकसार आ जाए।
अम्न का काश!अब किसी सूरत,
जंग पर इख़्तियार आ जाए।
ख़ैरियत उनकी जो मिले कोई,
"मेरे दिल को क़रार आ जाए।"
©️ ओंकार सिंह विवेक
Bahut khoobsoorat
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।
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