कई दिनों बाद एक तरही ग़ज़ल सृजित हुई है।आपकी प्रतिक्रियाओं हेतु प्रस्तुत कर रहा हूं:
मिसरा'-ए-तरह 👉 मैनें खुद से भी दोस्ती की है
**************************************
ग़ज़ल -- ओंकार सिंह विवेक
@
सब ख़ता इसमें आदमी की है,
साँस उखड़ी जो ये नदी की है।
वो जो सच की दुहाई देता था,
झूठ की उसने पैरवी की है।
धूप का क्यों न ख़ैर मक़्दम हो,
ठंड भी तो ये जनवरी की है।
@
ताड़ तिल का बना के छोड़ेगा,
जैसी फ़ितरत उस आदमी की है।
हौसले को सलाम है गुल के,
एक पत्थर से दोस्ती की है।
फूल-फल ही नहीं दिए केवल,
छाँव भी पेड़ ने घनी की है।
जो ग़ज़ल हम सुना रहे हैं तुम्हें,
बस मुकम्मल अभी-अभी की है।
@ओंकार सिंह विवेक
Bahut sundar ghazal
ReplyDeleteधन्यवाद आपका।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 29 नवंबर 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
धन्यवाद आपका।
Deleteवाह
ReplyDeleteधन्यवाद।
Delete