एक मतला' और एक शेर समाअत कीजिए :
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अभी तीरगी के निशाँ और भी हैं,
उजाले तेरे इम्तिहाँ और भी हैं।
अभी रंजो-ग़म कुछ उठाने हैं बाक़ी,
अभी तो मेरे मेहरबाँ और भी हैं।
@ओंकार सिंह विवेक
मित्रो सादर प्रणाम 🌹🌹🙏🙏 आजकल कुछ पारिवारिक व्यस्तताएं अधिक रहीं जिस कारण ब्लॉग पर आपसे संवाद नहीं हो पाया।इन दिनों एक-दो साह...
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