November 15, 2023

त्योहार के बहाने

नमस्कार मित्रो 🌹🌹🙏🙏

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी दीपों का त्योहार दीपावली आया और चला गया। कुछ बस्तियों में ख़ूब धूम-धड़ाका हुआ।कुछ घरों में हज़ारों की आतिशबाज़ी आई और स्वाहा कर दी गई। अमीरों के यहाँ मिठाइयों/ड्राई फ्रूट्स और गिफ्ट्स के जमकर आदान-प्रदान हुए।
.        (चित्र : गूगल से साभार) 
दूसरी तरफ़ कुछ बस्तियों में वो धूम-धड़ाका या उत्साह का माहौल देखने को नहीं मिला जो होना चाहिए था। निर्धन फुटपाथ पर फड़ लगाकर सामान ही बेचते रहे ताकि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें।
समाज में इस आर्थिक क्षमता या परचेसिंग पॉवर में हद दर्जे की असमानता/असंतुलन को देखकर ह्रदय बहुत व्यथित हुआ।इसके पीछे संसाधनों का असमान वितरण/अभाव, सामाजिक स्तर/सामाजिक विसंगति या अर्थशास्त्र के तमाम तर्क हो सकते हैं जिन पर बुद्धिजीवी लंबी बहसें कर सकते हैं।
.      (चित्र : गूगल से साभार)
तथ्य और कारण कोई भी हों परंतु दीपावली पर जब एक तरफ़ भरपूर मस्ती और एक तरफ़ मायूसी देखी तो कवि मन से दो दोहे सृजित हुए जो आप सभी के साथ साझा कर रहा हूं :
@
महलों में ही बँट गया,सब का  सब उजियार।
झोपड़ियों में रह गया,फिर वह ही अँधियार।।

सजने  दो  जिनके  लिए, सजें हाट - बाज़ार।
अपनी  तो  है  जेब  पर, भारी  हर  त्योहार।।
               @ओंकार सिंह विवेक 

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