कई दिन बाद एक मुकम्मल ग़ज़ल दोस्तों की नज़्र
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झुग्गियों का हक़ दबाना आ गया,
कोठियों को ज़ुल्म ढाना आ गया।
लग रहा है खेत की मुस्कान से,
धान की बाली में दाना आ गया।
दूधिया ख़ुश है कि बेटे को भी अब,
दूध में पानी मिलाना आ गया।
साफ़गोई की इलाही ख़ैर हो,
चापलूसों का ज़माना आ गया।
चाहिए अब और क्या माँ-बाप को,
लाल को खाना-कमाना आ गया।
वो सभी रौनक हुए दरबार की,
हाँ में जिनको सर हिलाना आ गया।
रोज़ रोगी सांस के बढ़ने लगे,
गाँव में क्या कारखाना आ गया।
करते-करते मश्क़,मिसरे पर 'विवेक',
हमको भी मिसरा लगाना आ गया।
@ओंकार सिंह विवेक
Bahut sundar
ReplyDeleteDhanywaad
Deleteवाह!! बेहतरीन
ReplyDeleteआभार आदरणीया।
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