नमस्कार मित्रो 🌹🌹🙏🙏
कुछ दिन पहले कही गई ग़ज़ल में कुछ संशोधन करके नया रूप दिया है। प्रतिक्रिया हेतु आपकी अदालत में पेश है:
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
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हमें सच से क्या रग़बत हो गई है,
ज़माने भर को दिक़्क़त हो गई है।
कभी होती थी जन- सेवा का साधन ,
सियासत अब तिजारत हो गई है।
यहाँ लगता है कुछ लोगों की जैसे,
उसूलों से अदावत हो गई है।
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सहे हैं ज़ुल्म इतने आदमी के,
नदी की पीर पर्वत हो गई है।
निकाला करते हैं बस नुक़्स सबमें,
ये कैसी उनकी आदत हो गई है।
हसद तेरी मुबारक तुझको हासिद,
हमें तो तुझसे उल्फ़त हो गई है।
हुए क्या हम रिटायर नौकरी से,
मियाँ! फ़ुरसत ही फ़ुरसत हो गई है।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
Bahut sundar gazal
ReplyDeleteहार्दिक आभार
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