ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
दिनांक: 14.11.2022
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इसको लेकर ही उनको दुश्वारी है,
जनता में क्यों अब इतनी बेदारी है।
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समझेंगे क्या दर्द किराएदारों का,
पास रहा जिनके बँगला सरकारी है।
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कोई सुधार हुआ कब उसकी हालत में ,
जनता तो बेचारी थी , बेचारी है।
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शकुनि बिछाए बैठा है चौसर देखो,
आज महाभारत की फिर तैयारी है।
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नाम कमाएँगे भरपूर सियासत में,
नस-नस में इनकी जितनी मक्कारी है।
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औरों-सा बनकर पहचान कहाँ होती,
अपने -से हैं तो पहचान हमारी है।
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दुख का ही अधिकार नहीं केवल इस पर,
जीवन में सुख की भी हिस्सेदारी है।
---- ©️ओंकार सिंह विवेक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-11-2022) को "माता जी का द्वार" (चर्चा अंक-4615) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी हार्दिक आभार आपका 🙏🙏
Deleteसामायिक परिस्थितियों पर सीधा प्रहार करती रचना।
ReplyDeleteसुंदर।
अतिशय आभार आपका।
DeleteBahut sundar, vah vah.Madhur smirtiyaan
ReplyDeleteDhanywad
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