एक बार फिर ग़ज़ल के बहाने
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प्रणाम मित्रो🙏🙏
कविता कवि के मन और उसके आस-पास जो घटित हो रहा होता है उसकी अभिव्यक्ति से इतर कुछ नहीं होती।कवि या रचनाकार के मन में भिन्न-भिन्न समय पर काल और परिस्थितियों को देखकर विचार आते रहते हैं जिन्हें वह अपने चिंतन कौशल से शब्दों में ढालकर कविता का रूप देकर पाठकों और श्रोताओं के संमुख रख देता है। काव्य की गीत विधा में एक गीत में अमूमन एक विचार और भावभूमि को लेकर ही पूरा गीत रचा जाता है परंतु ग़ज़ल का केस थोड़ा भिन्न है।ग़ज़ल का हर शेर दूसरे से स्वतंत्र और विभिन्न कालखंड के मौज़ू और मफ़हूम लिए हुए हो सकता है।ग़ज़लकार को इस बात का फ़ायदा मिलता है कि वह कई कथ्य और विषय अपनी एक ही ग़ज़ल के अलग-अलग शेरों/अशआर में कह सकता है।
मेरी हाल ही में एक जदीद ग़ज़ल मुकम्मल हुई।इस ग़ज़ल के कुछ शेर ऐसे हैं जो कई साल पहले उस समय की परिस्थिति और राजनैतिक परिदृश्य पर हुए चिंतन के फलस्वरूप सृजित हुए थे।मैंने यह ग़ज़ल फेसबुक पर "ग़ज़लों की दुनिया" समूह में पोस्ट की थी।इस ग्रुप से मैं पिछले लगभग सात साल से जुड़ा हुआ हूँ।इस पटल से अच्छी ग़ज़लें कहने वालों के साथ-साथ ग़ज़लों का शौक़ीन एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग भी जुड़ा हुआ है।
कई बार अक्सर लोगों की ऐसी राय पढ़ने को मिलती है कि अच्छी ग़ज़ल उर्दू के शब्दों का प्रयोग करके ही कही जा सकती है।ऐसा कहना बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा।आज अंसार कंबरी,विज्ञान व्रत, हरे राम समीप और अशोक रावत जी जैसे तमाम ग़ज़लकार हिंदी देवनागरी में बहुत ही सशक्त ग़ज़लें कह रहे हैं। हां, स्वाभाविक रूप से यदि आम बोलचाल के कुछ उर्दू शब्द ग़ज़ल में आ भी जाएं तो इसमें क्या बुराई है। आख़िर उर्दू भी तो हमारे देश की ही भाषा है। किंतु ऐसा हमारी राजभाषा हिंदी की क़ीमत पर बिल्कुल नहीं होना चाहिए।
ग़ज़ल के बारे में आदरणीय श्री अशोक रावत जी का यह कथन यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा :
"ग़ज़ल में जिसे अपने आप को साबित करना है वह अपने आप को उस भाषा में साबित करे जिसे वह बेहतर बोलता और समझता है. अगर साबित करना है तो ग़ज़ल की कहन और दमदार कथ्य से साबित करे. ग़ज़ल सिर्फ किसी एक भाषा के शब्दों की ग़ुलाम नहीं है."
--- अशोक रावत
इस बार बाक़ी ग़ज़लों के मुक़ाबले ग्रुप में मेरी इस ग़ज़ल को अपेक्षा से कहीं ज़ियादा लोगों ने पसंद करते जुए कमेंट किये परन्तु एक दो कमेंट अप्रत्याशित भी आए जो कोई असामान्य बात भी नहीं कही जा सकती क्योंकि आपकी हर बात सबको पसंद आए यह बिल्कुल असंभव है।बहुत पहले की परिस्थितियों को देख-परखकर कहे गए कुछ पुराने शेरों को कुछ लोगों ने जिस विचारधारा या वर्ग से उनकी आस्थाएं जुड़ी हैं सीधे उससे जोड़कर देखा और अप्रिय कमेंट भी किए जो शायद नहीं किए जाने चाहिए थे या मर्यादित तरीक़े से किए भी जा सकते थे।अन्य लोगों को जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है वैसे ही एक कवि और साहित्यकार को भी अपनी स्वतंत्र विचारधारा रखते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार होता है।हाँ,कई लोग उससे असहमत भी हो सकते हैं।उनकी अपनी विचारधारा और प्रतिबद्धता के कारण यह उनका अधिकार भी बनता है।परंतु असहमत होने की दशा में भी टिप्पणी तो मर्यादित भाषा में ही कि जानी चाहिए चाहे वो कवि द्वारा की जाए या फिर प्रबुद्व पाठक द्वारा।
फिलहाल इतना ही।लीजिए आपकी अदालत में हाज़िर है मेरी संदर्भित ग़ज़ल
ग़ज़ल : ओंकार सिंह 'विवेक'
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जुमले और नारे ही सिर्फ़ उछाले हैं,
मुद्दे तो हर बार उन्होंने टाले हैं।
देख रहे हैं वो चुपचाप चमन जलता,
कैसे कह दें हम उनको,रखवाले हैं।
बाग़ों से ही सिर्फ़ नहीं पहचान रही,
सहरा भी सब हमनें देखे-भाले हैं।
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अम्न-ओ-अमां की बातें करने वालों के,
हाथों में कैसे ये बरछी-भाले हैं।
जंग लड़ी है हर पल घोर अँधेरों से,
यूँ ही थोड़ी हासिल आज उजाले हैं।
साथ चलेंगे इसके साँसें रहने तक,
हम कब वक़्त से पीछे रहने वाले हैं।
चाय मनीला में,लंदन में लंच-डिनर,
दौलत वालों के सब ठाठ निराले हैं।
-- ©️ओंकार सिंह विवेक
(इस पटल से कुछ भी कॉपी करने से पूर्व ब्लॉगर की कॉपीराइट नीति को अवश्य पढ़ें)
मेरी रचना को चर्चा में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार 🙏🙏🌹🌹
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