कविता के सृजन के लिए कोई घटना,अनुभूति, या अनुभव चाहिए होता है।इन सब चीज़ों को लेकर ही कवि का चिंतन विकसित होता है और कविता का प्रस्फुटन होता है। गद्य में किसी विचार को विस्तार देना जितना आसान है, यह काम कविता में उतना ही मुश्किल होता है। कविता के शिल्प विधान का पालन करते हुए कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने के लिए पर्याप्त कौशल की आवश्यकता होती है। परंतु मां सरस्वती की कृपा और निरंतर अभ्यास से ऐसा कर पाना कुछ मुश्किल भी नहीं है।
जिन दिनों रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत हुई उन दिनों मन बहुत खिन्न रहा। मानवता पर घिर आए संकट को देखकर उन दिनों मन की कैफियत बयान करने के लिए मैंने अपनी ब्लॉग पर भी कई पोस्ट्स लिखी थीं। उन्हीं दिनों अपनी मनोदशा को चित्रित करते हुए मैंने ग़ज़ल का एक मतला कहा था फिर उसमें उसी रंग के कुछ और शेर भी हुए।कुछ शेर अलग रंग के भी हुए।वह ग़ज़ल आप सबकी प्रतिक्रिया हेतु नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं। कॉमेंट्स की प्रतीक्षा रहेगी।
यह ग़ज़ल और इसके साथ मेरी कुछ और ग़ज़लें प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका अनुभूति में भी छपीं थीं जिनके स्क्रीनशॉट अवलोकनार्थ साथ संलग्न हैं।पत्रिका की संपादक आदरणीया पूर्णिमा वर्मन जी का दिल से शुक्रिया अदा करता हूं।
कुछ ग़ज़लें कलकत्ता से निकलने वाले प्रसिद्ध अख़बार सदीनामा में भी छपीं जिसके स्क्रीनशॉट भी साथ संलग्न हैं। इसके लिए रुड़की के मशहूर शायर आदरणीय ओमप्रकाश नूर साहब का दिली शुक्रिया।
ग़ज़ल -- ओंकार सिंह विवेक
हर तरफ़ जंग की अलामत है,
अम्न पर ख़ौफ़-सा मुसल्लत है।
क्या करें उनसे कुछ गिला-शिकवा,
तंज़ करना तो उनकी आदत है।
मुजरिमों को नहीं है डर कोई,
ख़ौफ़ में अब फ़क़त अदालत है।
हमने ज़ुल्मत को रौशनी न कहा,
उनको हमसे यही शिकायत है।
पूछ लेते हैं हाल-चाल कभी,
दोस्तों की बड़ी इनायत है।
बात करते हैं, फूल झरते हैं,
उनके लहजे में क्या नफ़ासत है।
जंग से मसअले का हल होगा,
ये भरम पालना हिमाक़त है।
---- ओंकार सिंह विवेक
---ओंकार सिंह विवेक
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