मित्रो काफ़ी पहले एक ग़ज़ल कही थी जिसमें सिर्फ़ पांच शेर ही हो पाए थे। अब फ़िक्र बढ़ी तो उसमें कुछ और शेर कहे और इस तरह यह सात अशआर की एक मुकम्मल ग़ज़ल हो गई।इस दौरान कुछ नए अनुभव हुए,समाज में तेजी से परिवर्तित हो रहे घटनाक्रम पर नज़र गई तो उन तमाम भावों और कथ्यों को ग़ज़ल में पिरो दिया। अपने जज़्बात को काव्य रूप में आपकी अदालत में प्रतिक्रिया की आशा के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं:
ग़ज़ल -- ओंकार सिंह विवेक
🌹
हो ज़रा सादा-सरल व्यवहार से,
और बशर आला भी हो किरदार से।
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कितनी ख़बरों में मिलावट हो गई,
सच पता चलता नहीं अख़बार से।
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काश! नफ़रत बाँटने वाले कभी,
जीतकर देखें दिलों को प्यार से।
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पैरवी करते रहे सच्चाई की,
हम गिरे हरगिज़ नहीं मेआर से।
🌹
लाख कोशिश कीजिए,होगा नहीं-
काम सूई का कभी तलवार से।
🌹
नाश हो इस कलमुँही महँगाई का,
छीन लीं सब रौनकें त्योहार से।
🌹
कामयाबी भी मिलेगी एक दिन,
जब चलेंगे वक़्त की रफ़्तार से।
🌹 ©️ ओंकार सिंह विवेक
(ब्लॉगर की पॉलिसी के तहत सर्वाधिकार सुरक्षित)
वाह! बेहतरीन ग़ज़ल
ReplyDeleteजी शुक्रिया!!!!!
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-09-2022) को "सूखी मंजुल माला क्यों?" (चर्चा-अंक 4562) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी आदरणीय ज़रूर हाज़िर रहूंगा, आभार आपका।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-09-2022) को "सूखी मंजुल माला क्यों?" (चर्चा-अंक 4562) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आदरणीय। ज़रूर हाज़िर रहूंगा।
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