अभी दो दिन पहले एक फोन आया। मैंने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज़ आई कि क्या आप ओंकार सिंह विवेक जी बोल रहे हैं? मैंने कहा जी बोल रहा हूं,आप कौन साहब? फोन करने वाले सज्जन ने कहा कि मैं रुड़की(उत्तराखंड) से शायर ओमप्रकाश नूर बोल रहा हूं।कल व्हाट्सएप ग्रुप "ग़ज़लों की महफ़िल" में आपकी ग़ज़ल पढ़ी थी जो काफ़ी पसंद आई।हम उसे "सदीनामा" पत्रिका में छपवाना चाहते हैं। ग़ज़ल पसंद करने के लिए मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और सहर्ष स्वीकृति दे दी।एक साहित्यकार को इससे ज़ियादा भला क्या दरकार होगा कि उसका कलाम कहीं छपता-छपाता रहे और लोग उसको सराहते रहें।
बातचीत का माहौल अनौपचारिक हो गया तो उनसे काफ़ी देर बातें हुईं।मुझे नूर साहब बहुत दिलचस्प इंसान लगे।कोशिश रहेगी कि कभी उनसे व्यक्तिगत भेंट भी हो पाए।उन्होंने बताया कि इस समय लखनऊ के शायर जनाब ओमप्रकाश नदीम साहब मेरे पास बैठे हुए हैं। मुझे आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई और मैंने तत्काल ही कहा कि ज़रा बात कराइए उनसे।
नदीम साहब से जब बात की तो उनका वही पुराना अनौपचारिक और आत्मीय अंदाज़ दिल को बाग़-बाग़ कर गया। रामपुर में साथ के लोग कैसे हैं, नशिस्तों और गोष्ठियों का क्या हाल है, रामपुर के पास स्थित बेनज़ीर के बाग़ के आम बहुत याद आते हैं आदि आदि-- एक ही सांस में तमाम बातें बड़ी अपनाइयत के साथ नदीम साहब पूछते रहे और मैं जवाब देता रहा।शायरों और कवियों में मुर्तज़ा फरहत,सीन शीन आलम, होश नोमानी, शहज़ादा गुलरेज़ नईम नजमी,हीरालाल किरन,जितेंद्र कमल आनंद सहित कितने ही लोगों के बारे में उन्होंने बहुत उत्साह के साथ मुझसे जानकारी ली। इस आत्मीय बातचीत के चलते मुझे रामपुर में उनकी पोस्टिंग के दौरान उनकी संगत में बिताए गए दिन सहसा याद आ गए।
बात उन दिनों की है जब मैं रामपुर में ही प्रथमा बैंक में तैनात था और नदीम साहब पी डब्ल्यू डी कार्यालय में अकाउंट्स अफ़सर थे। वो मेरी शायरी का इब्तदाई दौर था।नदीम साहब से शायरी/ग़ज़ल और उसकी कहन के बारे में मैंने बहुत कुछ सीखा था। एक दूसरे के घर पर भी आना-जाना होता रहता था।। मैं जब कभी नदीम साहब के घर गया तो मैंने कभी उन्हें औपचारिक होते नहीं देखा।बड़ी आत्मीयता से मिलना और घर के सदस्य की तरह ही खाने-खिलाने का इसरार करना उनके मस्तमौला स्वभाव का परिचायक था। रामपुर में आयोजित होने वाली गोष्ठियों और नशिस्तों में हम लोग मेरे पुराने स्कूटर पर अक्सर साथ ही आया-जाया करते थे। एक बार एक गोष्ठी में जाते वक्त संतुलन बिगड़ जाने की वजह से मेरा स्कूटर स्लिप हो गया और हम दोनों काफ़ी दूर तक सड़क पर फिसलते चले गए।दोनों के ही अच्छे ख़ासे घुटने छिल गए थे। मैंने कहा कि अब घर वापस चलते हैं यूं ज़ख्मी हालत में गोष्ठी में जाना मुनासिब नहीं होगा परंतु यह कहते हुए कि ऐसा तो होता ही रहता है,नदीम साहब इसरार करके मुझे गोष्ठी में ले गए। फोन पर इस घटना को याद करके नदीम साहब और मैं बहुत देर तक हँसते रहे।
अरसे बाद एक उम्दा शायर और बेहतरीन इंसान से फोन पर बात करके बहुत अच्छा लगा।उम्मीद है यह सिलसिला चलता रहेगा। किसी शायर के इस शेर के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं :
कितने हसीन लोग थे जो मिलके एक बार,
आँखों में जज़्ब हो गए दिल में समा गए।
--- प्रस्तुतकर्ता ओंकार सिंह विवेक
जिस ग़ज़ल को लेकर यह बातचीत का सिलसिला बना
"सदीनामा" में छपी वह ग़ज़ल भी आप हज़रात की नज़्र करता हूं :
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआभार आदरणीय 🌹🌹🙏🙏
Deleteबहुत ख़ूब!💐💐💐
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।
Deleteबहुत बधाई
ReplyDeleteग़ज़ल भी अच्छी,और मुलाकात -बातों का संस्मरण भी मनमोहक
अत्यधिक आभार आपका।
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteआभार आदरणीय।
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