यों तो मैं मूलत: ग़ज़ल विधा का विद्यार्थी हूं परंतु रस परिवर्तन के लिए अक्सर दोहों, मुक्तकों और नवगीत तथा कुंडलिया आदि के माध्यम से भी भाव अभिव्यक्ति का प्रयास कर लेता हूं।कुछ दिन पूर्व चुनावी हलचल के दौरान राजनैतिक विसंगतियों और विराधाभासों को लेकर एक नवगीत का सृजन हुआ था जो आपके साथ साझा कर रहा हूं :
नवगीत : समीक्षार्थ
--©️ओंकार सिंह विवेक
राजनीति के कुशल मछेरे,
फेंक रहे हैं जाल।
जिस घर में थी रखी बिछाकर,
वर्षों अपनी खाट।
उस घर से अब नेता जी का,
मन हो गया उचाट।
देखो यह चुनाव का मौसम,
क्या-क्या करे कमाल।।
घूम रहे हैं गली-गली में,
करते वे आखेट।
लेकिन सबसे कहते सुन लो,
देंगे हम भरपेट।
काश!समझ ले भोली जनता,
उनकी गहरी चाल।
कुछ लोगों के मन में कितना,
भरा हुआ है खोट।
धर्म-जाति का नशा सुँघाकर,
माँग रहे हैं वोट।
ऊँचा कैसे रहे बताओ,
लोकतंत्र का भाल।
नैतिक मूल्यों, आदर्शों को,
कौन पूछता आज,
जोड़-तोड़ वालों के सिर ही,
सजता देखा ताज।
जाने कब अच्छे दिन आएँ,
कब सुधरे यह हाल।
--- ©️ ओंकार सिंह विवेक
आज के हालातों का सटीक चित्रण
ReplyDeleteअतिशय आभार आपका।
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