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आज सुबह से ही मौसम बहुत सुहावना हो रहा है। हल्की- हल्की बूंदा- बांदी के साथ मस्त हवा के झोंके तन- मन को प्रफुल्लित कर रहे हैं।सावन का पावन मास अपने पूर्ण यौवन पर है। खेतों में हरियाली, भक्ति संगीत की धुन पर थिरकते कांवरिए,झूलों पर पींग बढ़ाती और कजरी गाती सुहागिनें तथा फैनी और घेवर का आनंद -----इन मनोहारी दृश्यों को देखकर कौन भला खुशी का अनुभव नहीं करेगा।
इन दृश्यों के यूं ही सदाबहार बने रहने की कामना मन में लिए आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा के साथ पर्यावरण की चिंता करते हुए कुछ दोहे प्रस्तुत कर रहा हूं :
पर्यावरण :पाँच दोहे
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ओंकार सिंह विवेक
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करता है दोहन मनुज,ले विकास की आड़,
कैसे चिंतित हों नहीं , जंगल और पहाड़।
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ताप धरा का बढ़ रहा,पिघल रहे हिमखंड,
आज प्रकृति से छेड़ का,मनुज पा रहा दंड।
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सब ही मैला कर रहे,निशिदिन इसका नीर,
गंगा माँ किससे कहे,जाकर अपनी पीर।
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देते हैं हम पेड़ तो, प्राण वायु का दान,
फिर क्यों लेता है मनुज, बता हमारी जान।
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सबसे है मेरी यही, विनती बारंबार,
वृक्ष लगाकर कीजिए, धरती का शृंगार।
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--ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुंदर और सार्थक दोहे
ReplyDeleteअतिशय आभार आपका 🙏🙏
Deleteसुंदर दोहे
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।
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