August 25, 2022

उनका ऑफ़र और नहीं कुछ

मित्रो सादर प्रणाम 🙏🙏🌹🌹

यह अलग बात है कि तरही मिसरे पर ग़ज़ल कहने में बहुत पाबंदियां हो जाती हैं। आज़ादी से किसी मफहूम को निर्धारित रदीफ और काफियाें में बांधना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। परंतु यह भी सच है की इस बहाने ग़ज़ल तो हो ही जाती है।इधर घरेलू कामों में उलझे रहने की वज़ह से काफ़ी दिनों से कोई ग़ज़ल नहीं हो पाई थी। इस दौरान एक साहित्यिक ग्रुप में तरही मिसरा दिया गया जिस पर एक हल्की-फुल्की ग़ज़ल मैंने भी कह ली जो आपकी अदालत में हाज़िर है। प्रतिक्रिया से अवश्य ही अवगत कराएं :

इससे बढ़कर और नहीं कुछ
२    २ २   २  २   २  २  २
है ये छल-भर और नहीं  कुछ,
उनका ऑफ़र और नहीं कुछ।

काश!समझ  आए  झूठों को,
साँच बराबर  और नहीं कुछ।

नादाँ   हैं    ये    कहने    वाले,
धन से बढ़कर और नहीं कुछ।

है  केवल  आँखों   का  धोखा,
जादू-मंतर  और   नहीं   कुछ।

गाल  बजाने   हैं   हज़रत   को,
करना दिन भर और नहीं कुछ।

रिश्वत  का  बस  रुतबा   देखा,
दफ़्तर-दफ़्तर  और  नहीं कुछ।

कोई   अपना-सा   मिल  जाए,
"इससे बढ़कर और  नहीं कुछ"

नस्ल-ए-नौ  ऐ  हाकिम  तुझसे,
माँगे  अवसर  और  नहीं  कुछ।
        ---ओंकार सिंह विवेक 

        (सर्वाधिकार सुरक्षित)

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