इधर कई दिनों से ब्लॉगिंग साइट पर आपसे संवाद नहीं हो पाया तो यों लगा जैसे दिनचर्या में कुछ न कुछ छूट रहा है। दरअस्ल इन दिनों घर में पुताई और मरम्मत कार्य के चलते सोशल मीडिया आदि पर सक्रियता थोड़ी कम ही रही।आज समय निकालकर आपसे मुखातिब हूं।
विचार तो मस्तिष्क में सतत् धमाचौकड़ी करते ही रहते हैं परंतु उन्हें कलात्मक काव्य रूप में अभिव्यक्त करने के लिए थोड़ा गंभीर होना पड़ता है।अच्छी कविता सृजन के लिए पर्याप्त समय चाहती है।यह ज़रूरी भी है क्योंकि कवि को यदि आम और ख़ास लोगों के दिलों पर राज करना है,लोगों के मुख से प्रशंसा या वाह वाह! सुननी है तो उसे कविता के रूप में कुछ अच्छा ही परोसना होगा।
मन में विभिन्न विषयों को लेकर जब विचार प्रबल हुए तो कविता/ग़ज़ल का प्रस्फुटन हुआ जो आपकी अदालत में हाज़िर है :
ग़ज़ल-- ओंकार सिंह विवेक
ये जो शाखों से पत्ते झर गए हैं,
ख़िज़ाँ का ख़ैर मक़दम कर गए हैं।
कलेजा मुँह को आता है ये सुनकर,
वबा से लोग इतने मर गए हैं।
चमक आए न फिर क्यों ज़िंदगी में,
नए जब रंग इसमें भर गए हैं।
वो जब-जब आए हैं,लहजे से अपने-
चुभोकर तंज़ के नश्तर गए हैं।
डटे हैं भूखे-प्यासे काम पर ही,
कहाँ मज़दूर अब तक घर गए हैं।
है इतना दख्ल नभ में आदमी का,
उड़ानों से परिंदे डर गए हैं।
अभी कुछ देर पहले ही तो हमसे,
अदू के हारकर लश्कर गए हैं।
---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
वाह sir जी
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका 🙏🙏🌹🌹
Deleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-07-2022) को चर्चा मंच "ग़ज़ल लिखने के सलीके" (चर्चा-अंक 4485) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी अवश्य। हार्दिक आभार आपका
Deleteडटे हैं भूखे-प्यासे काम पर ही,
ReplyDeleteकहाँ मज़दूर अब तक घर गए हैं।
अभी कुछ देर पहले ही तो हमसे,
अदू के हारकर लश्कर गए हैं।
. बहुत सही.
कविता जी बेहद शुक्रिया आपका।
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ReplyDeleteवो जब-जब आए हैं,लहजे से अपने-
चुभोकर तंज़ के नश्तर गए हैं।
डटे हैं भूखे-प्यासे काम पर ही,
कहाँ मज़दूर अब तक घर गए हैं।
है इतना दख्ल नभ में आदमी का,
उड़ानों से परिंदे डर गए हैं।
लाजवाब शेरों से सजी नायाब गजल ।
बेहद शुक्रिया आपका
Deleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज शनिवार (09-07-2022) को चर्चा मंच "ग़ज़ल लिखने के सलीके" (चर्चा-अंक 4485) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी शुक्रिया 🙏🙏
Deleteसुंदर गजल
ReplyDeleteवो जब-जब आए हैं,लहजे से अपने-
चुभोकर तंज़ के नश्तर गए हैं।
अतिशय आभार आपका 🙏🙏🌹🌹
Deleteबेहतरीन ग़ज़ल, बिलाशक़।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका
Deleteवाह!गज़ब 👌
ReplyDeleteसराहनीय सृजन।
सादर
हार्दिक आभार आदरणीया।
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