पूरे दिन का तो नहीं पता परंतु आज सुब्ह- सुब्ह मौसम कुछ खुशगवार नज़र आया तो सोचा की मॉर्निंग वॉक के बाद ब्लॉग पर ही पहले कुछ पोस्ट किया जाए उसके बाद नाश्ते के बारे में सोचते हैं।
यह सत्य बात है कि शरीर भले ही थककर कुछ देर आराम करता हो या इसकी कामना करता हो लेकिन मन का परिंदा हमेशा उड़ान पर ही रहता है।मन सदैव विचारों के आसमान को नापता रहता है।
सो मित्रो इस चंचल मन की उड़ान के चलते कुछ नए दोहे हो गए जो आप सब के साथ साझा कर रहा हूं। उम्मीद है पसंद आएंगे ---
कुछ ताज़ा दोहे
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तेज़ धूप ने देह की,ली सब शक्ति निचोड़,
अब तो सूरज देवता,दो अपनी ज़िद छोड़।
प्यास बुझाएं किस तरह, बेचारे ये खेत,
नदिया में है दीखता,सिर्फ़ रेत ही रेत।
कैसे भूलें हार का, बोलो हम उपकार,
वह ही बतलाकर गई,हमें जीत का द्वार।
संत कबीरा भर गए,दोहों में जो रंग,
उसे देखकर रह गए,बड़े-बड़े भी दंग।
धीरे-धीरे जब हुए, प्रबल मौन के वार,
आवाज़ों के हिल गए,सभी ठोस आधार।
---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-06-2022) को चर्चा मंच "अमलतास के झूमर" (चर्चा अंक 4464) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अतिशय आभार शास्त्री जी
Deleteगर्मीका का प्रकोप इस बार सच बहुत था। राजस्थान में आज कल कुछ बादल आए हैं।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सृजन।
सादर
अतिशय आभार आदरणीया
Deleteसुंदर !
ReplyDeleteउत्तम दोहे समयपरक।
हार्दिक आभार आपका
Deleteउत्तम सृजन।
ReplyDeleteसुंदर दोहे।
अतिशय आभार
Deleteउत्तम रचना...👏👏👏
ReplyDeleteमान्यवर हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुंदर आदरणीय
ReplyDeleteअतिशय आभार आपका 🙏🌹
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