समस्या पूर्ति/तरही मिसरा
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---ओंकार सिंह विवेक
हिंदी काव्य में दिए गए शब्द/पंक्ति पर किसी काव्य रचना का सृजन करना बहुत पुरानी परंपरा रही है।इसी प्रकार उर्दू साहित्य में भी दिए गए मिसरे पर ग़ज़ल कहकर नशिस्तों/मुशायरों में पेश करना ग़ज़ल विधा के उद्धव काल से ही चला आ रहा है।हिंदी साहित्य में ऐसी प्रतियोगिताएं कई प्रकार से आयोजित की जाती हैं। एक प्रथा यह है की दी हुई पंक्ति या शब्द को रचना के अंत में लाने का आग्रह किया जाता है और कई बार यह स्वतंत्रता रहती है कि दी गई पंक्ति का रचना में किसी भी स्थान पर समुचित प्रयोग किया जा सकता है।शर्त यह होती है कि उस शब्द/पंक्ति का प्रयोग करके रचना सारगर्भित तथा आकर्षक होनी चाहिए।इसी प्रकार उर्दू काव्य विधा में ग़ज़ल कहने के लिए एक मिसरा दे दिया जाता है और हिदायत रहती है कि इस मिसरे पर कोई मिसरा इस प्रकार लगाया जाए कि कथ्य और तथ्य युक्त एक प्रभावशाली शेर हो जाए तथा दिए गए मिसरे की बहर/मापनी में पूरी ग़ज़ल भी कह ली जाए। तरही मिसरे की एक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि इसे सानी यानी दूसरा मिसरा ही बनाया जाता है इस पर ऊला यानी पहला मिसरा लगाकर शेर को मुकम्मल किया जाता है। दिए गए मिसरे यानी तरही मिसरे को ग़ज़ल के मतले में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए।यह अच्छी तरकीब नहीं मानी जाती है।
ऐसे आयोजनों के बहुत फ़ायदे हैं। पहला फ़ायदा यह है कि नए साहित्यकारों में काव्य सृजन के प्रति उत्साह जागृत होता है। साहित्यकार बढ़-चढ़ कर ऐसी प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं जिससे उनके साहित्यिक कोष में भी वृद्धि होती है।दूसरा फ़ायदा यह कि इससे एक अच्छे साहित्यिक आयोजन की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है।
एक साहित्यिक पटल के दैनिक आयोजन में ग़ज़ल विधा की कार्यशाला में इसी प्रकार एक मिसरा दिया गया था--
"शब्द ही प्यार के बोलता रह गया"
मैंने भी इस मिसरे पर ग़ज़ल कही थी और सौभाग्य से उसको प्रथम पुरस्कार हेतु भी चुना गया था। अपनी वही ग़ज़ल आप सब सुधी जनों के साथ साझा कर रहा हूं।आशा है अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य ही अवगत कराएंगे।
ग़ज़ल--©️ओंकार सिंह विवेक
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झूठ पर झूठ वो बोलता रह गया,
देखकर मैं तो हैरान-सा रह गया।
अर्ज़ हाकिम ने लेकिन सुनी ही नहीं,
एक मज़लूम हक़ माँगता रह गया।
जीते जी उसके, बेटों ने बाँटा मकां,
बाप अफ़सोस करता हुआ रह गया।
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जाने वाले ने मुड़कर न देखा ज़रा,
दुख हमें बस इसी बात का रह गया।
नाम से उनके चिट्ठी तो इरसाल की,
पर लिफ़ाफ़े पे लिखना पता रह गया।
हाल यूँ तो कहा उनसे दिल का बहुत,
क्या करें फिर भी कुछ अनकहा रह गया।
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वो हिक़ारत दिखाता रहा, और मैं,
"शब्द ही प्यार के बोलता रह गया"
देखकर हाथ में उनके आरी 'विवेक',
डर के मारे शजर काँपता रह गया।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
इरसाल करना -- प्रेषित करना
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आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-06-2022) को चर्चा मंच "तोल-तोलकर बोल" (चर्चा अंक-4462) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आभार आदरणीय
Deleteबेहतरीन लिखा ,बधाई
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteवाह! गज़ब लिखा सर।
ReplyDeleteसरल लहजे में सराहनीय सृजन होता है आपका।
प्रथम पुरस्कार हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभकामनएँ।
सादर
आभार आदरणीया
Deleteवाह वाह! सहल अंदाज़ में बेहतरीन ग़ज़ल!💐💐💐
ReplyDeleteशुक्रिया भाई जी
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