क़ानून में सुधार भी अच्छे संस्कार भी
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-------ओंकार सिंह विवेक
निर्भया बलात्कार ,हैदराबाद में महिला पशुचिकित्सक की बलात्कार के बाद निर्मम हत्या,उन्नाव काँड, कानपुर का विकास दूबे काँड या देश में इसी तरह की तमाम हत्या,बलात्कार,हिंसा,चोरी,डकैती, लूट,ठगी या या अन्य अपराधों की दिल दहला देने वाली घटनाएँ कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं।बार बार दिमाग़ में यही सवाल आता है कि आख़िर हम किधर जा रहे हैं।जब इस तरह की घटनाएँ होती हैं तो कुछ समय के लिए चर्चा होती है,डिबेट और बुद्धिजीवियों का चिंतन चलता है पर फिर से सब उसी ढर्रे पर लौट आते हैं।
अक्सर यह बात ज़ोर शोर से उठायी जाती है कि अब हमारे देश के क़ानूनों में सख़्त प्रावधानों की ज़रूरत है ताकि अपराधी को क़ानून की सख़्ती का कुछ भय हो।यह बात किसी हद तक सही भी है।आज अपराधी और उनके पैरोकार क़ानून के लचीलेपन के कारण क़ानून तोड़ने और क़ानून की गिरफ्त से बचने के लिए क़ानून का ही सहारा ले रहे हैं।यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।जघन्य अपराध करके अपराधी चंद दिन में ही जेल से ज़मानत पर छूटकर पीड़ित को धमकाने लगते हैं। क़ानून की यह विवशता समझ नहीं आती।न्याय प्रक्रिया इतनी विलंबित है कि न्याय का उद्देश्य ही ख़त्म हो जाता है।जटिल क़ानूनी प्रक्रिया और उसके लचीलेपन का फ़ायदा उठाकर वकील आसानी से अपराधियों को बचाकर लिए जा रहे हैं। इस भयावह स्थिति से निपटने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि अप्रसांगिक हो चुके क़ानूनों को समाप्त करके नए और सख़्त क़ानून बनाये जाएँ तथा आवश्यक प्रचलित क़ानूनों के सभी छेद बन्द करके न्याय व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त किया जाए।
इस तरह की चिन्ताजनक परिस्थितियों की बात करते समय हमें इसके एक दूसरे महत्वपूर्ण पहलू पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।वर्तमान आधुनिक परिवेश में निरंतर दूषित होते संस्कार भी इस तरह की घटनाओं का एक प्रमुख कारण हैं। आधुनिकता की अंधी दौड़ में परिवारों में बच्चों को प्रारंभ से ही सत्य के प्रति अनुराग और नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति जागरूक करने की प्रथा प्रायः समाप्त सी होती जा रही है।मानवीय मूल्यों में आस्था और उच्च आचरण की महत्ता रेखांकित करने और उसे युवा पीढ़ी को बताने की आज किसी के पास फ़ुरसत ही नहीं है।आज लोग सोशल मीडिया या फिल्मों से अच्छी बातें तो कम सीख रहे हैं गलत आचरण और अपराध करके बच निकलने के तरीक़ों के बारे में अधिक सीख रहे हैं।यह बहुत ही चिंताजनक स्थिति है।
अतः इस तरह की घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए जहाँ एक ओर क़ानून में सुधार की ज़रूरत है वहीं दूसरी और घर परिवार और समाज के स्तर पर नई पीढ़ी को अच्छे संस्कार और नैतिक शिक्षा के प्रति जागरूक करने और अपने कार्यों के प्रति ईमानदार और पारदर्शी बने रहने तथा अच्छे चाल चलन की नसीहत करना भी बहुत ज़रूरी है।ऐसा करके ही समाज और देश को पतन से बचाया जा सकता है।
शेष फिर---🙏🙏
(ओंकार सिंह विवेक)
उपयोगी आलेख और उम्दा ग़ज़ल।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 21 सितंबर 2020) को 'दीन-ईमान के चोंचले मत करो' (चर्चा अंक-3831) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
आदरणीय अत्यधिक आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख...।
ReplyDeleteआलेख एवं ग़ज़ल दोनों ही चिंतनपूर्ण, बेहतरीन !!!
ReplyDeleteहार्दिक बधाई!!!
बढ़िया लेख.
ReplyDeleteजितने क़ानून हैं उन पर तो अमल हो जाए पहले!
आभार आदरणीय।सही कहा आपने
ReplyDeleteडॉक्टर शरद सिंह जी आपका अत्यधिक आभार
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया सुधा जी
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