ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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कुछ मीठा कुछ खारापन है,
क्या क्या स्वाद लिए जीवन है।
कैसे आँख मिलाकर बोले,
साफ़ नहीं जब उसका मन है।
शिकवे भी उनसे ही होंगे,
जिनसे थोड़ा अपनापन है।
धन ही धन है इक तबक़े पर,
इक तबक़ा बेहद निर्धन है।
सूखा है तो बाढ़ कहीं पर,
बरसा यह कैसा सावन है।
कल निश्चित ही काम बनेंगे,
आज भले ही कुछ अड़चन है।
दिल का है वह साफ़,भले ही,
लहजे में कुछ कड़वापन है।
----ओंकार सिंह विवेक
उम्दा ग़ज़ल।
ReplyDeleteआभार आदरणीय
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (17अगस्त 2020) को 'खामोशी की जुबान गंभीर होती है' (चर्चा अंक-3796) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
हार्दिक आभार यादव जी
Deleteधन ही धन है इक तबक़े पर,
ReplyDeleteइक तबक़ा बेहद निर्धन है।
- इस युग की कड़वी हक़ीकत बयान करती बेहतरीन ग़ज़ल । हार्दिक आभार।
बेहद शुक्रिया आ0
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