November 22, 2019

कभी सोचा नहीं


ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक
आप  में  ही  आगे  बढ़ने  का  ज़रा  जज़्बा  नहीं,
बेसबब   कहते   हो ,  कोई   रासता   देता   नहीं।

ख़्वाब  तो  बेताब   थे  आँखें   सजाने   के  लिए,
मैं  ही  लेकिन  दो  घड़ी  को  चैन  से सोया नहीं।

हो गए क्यों लीक पर चलकर ही तुम भी मुत्मइन,
क्यों   नए   रस्ते   बनाने   का  कभी  सोचा  नहीं।

फ़र्क  है  गर  कोई  तो  है  आदमी  की  सोच का,
काम   कोई   भी  कभी  छोटा  बड़ा  होता  नहीं।

आज  सब राज़ी हैं तो तुम यह भरम मत पालना,
तुमसे  कल  को  भी  यहाँ कोई ख़फ़ा होगा नहीं।
                                 -----ओंकार सिंह विवेक
                               
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

2 comments:

  1. Adbhut Vivek ji...apki kavitaye hmesha hi ek nayi Soch aur Pragati ko darshati hai.... Aapki Kavita keh rhi hai "Kabhi Socha Nahi" parantu apki Kavita pdh kr hm hmesha sochte hai ki aap isi tarah hmara utsah vardhan krte the....- BHOOPAL SAINI

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    1. हार्दिक आभार भाई जी कि ब्लॉग पर आप मेरी रचनाएँ ध्यान पूर्वक पढ़ते हैं।

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