ग़ज़ल-ओंकार सिंह विवेक
अगरचे उनसे कुछ अनबन नहीं है,
मिलें उनसे ,ये फिर भी मन नहीं है।
समझते हो इसे जितना सरल तुम,
सरल इतना भी यह जीवन नहीं है।
बताओ झूठ यह बोलोगे कब तक,
कि तुमको कोई भी उलझन नहीं है।
हैं क़ायम आपसी रिश्ते तो अब भी,
मगर इनमें वो अपनापन नहीं है।
बढ़ाता है ये मेरे फ़िक्र-ओ-फ़न को,
बुरा हरगिज़ सुख़न का फ़न नहीं है।
तो फिर यह फैसलों में देर कैसी,
विचारों में अगर भटकन नहीं है।
-----------ओंकार सिंह विवेक
अगरचे उनसे कुछ अनबन नहीं है,
मिलें उनसे ,ये फिर भी मन नहीं है।
समझते हो इसे जितना सरल तुम,
सरल इतना भी यह जीवन नहीं है।
बताओ झूठ यह बोलोगे कब तक,
कि तुमको कोई भी उलझन नहीं है।
हैं क़ायम आपसी रिश्ते तो अब भी,
मगर इनमें वो अपनापन नहीं है।
बढ़ाता है ये मेरे फ़िक्र-ओ-फ़न को,
बुरा हरगिज़ सुख़न का फ़न नहीं है।
तो फिर यह फैसलों में देर कैसी,
विचारों में अगर भटकन नहीं है।
-----------ओंकार सिंह विवेक
Vah vah
ReplyDeleteआभार
DeleteSundar ghazal
ReplyDeleteशुक्रिया
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