ग़ज़ल-ओंकार सिंह विवेक
दूर रंज-ओ-अलम और सदमात हैं,
माँ है तो खुशनुमां घर के हालात हैं।
सब मुसलसल उसी को सताते रहे,
यह न सोचा कि माँ के भी जज़्बात हैं।
दुख ही दुख वो उठाती है सब के लिये,
माँ के हिस्से में कब सुख के लम्हात हैं।
लौट भी आ मेरे लाल परदेस से,
मुंतज़िर माँ की आँखें ये दिन रात हैं।
चूमती है जो मंज़िल ये मेरे क़दम,
यह तो माँ की दुआओं के असरात हैं।
बाल बाँका मेरा कौन कर पायेगा,
माँ के जब तक दुआ में उठे हाथ हैं।
---------ओंकार सिंह'विवेक'
दूर रंज-ओ-अलम और सदमात हैं,
माँ है तो खुशनुमां घर के हालात हैं।
सब मुसलसल उसी को सताते रहे,
यह न सोचा कि माँ के भी जज़्बात हैं।
दुख ही दुख वो उठाती है सब के लिये,
माँ के हिस्से में कब सुख के लम्हात हैं।
लौट भी आ मेरे लाल परदेस से,
मुंतज़िर माँ की आँखें ये दिन रात हैं।
चूमती है जो मंज़िल ये मेरे क़दम,
यह तो माँ की दुआओं के असरात हैं।
बाल बाँका मेरा कौन कर पायेगा,
माँ के जब तक दुआ में उठे हाथ हैं।
---------ओंकार सिंह'विवेक'
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