November 9, 2025

वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेंद्र कुमार सैनी जी द्वारा मेरे ग़ज़ल-संग्रह 'कुछ मीठा कुछ खारा' की समीक्षा



                ऊॅं 
         " पुस्तक परिचय "
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पुस्तक का नाम:- कुछ मीठा कुछ खारा (ग़ज़ल संग्रह)
शायर का नाम:- ओंकार सिंह "विवेक"
प्रकाशक :- अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज 
पृष्ठ संख्या:- 108
मूल्य:- 250 रुपए 

  साथियो!
श्री ओंकार सिंह 'विवेक' जी से मेरा परिचय फेसबुक के माध्यम से हुआ था और उनसे मेरी प्रथम रूबरू मुलाक़ात हिंदुस्तानी भाषा अकादमी के दिल्ली में हुए एक आयोजन में हुई थी। इस पहली मुलाक़ात में मेरी उनसे औपचारिक बातचीत हुई जो फिर मोबाइल के माध्यम से जारी रही। उस संक्षिप्त भेंट के दौरान मैंने यह महसूस किया कि श्री ओंकार सिंह 'विवेक' बहुत ही सरल,निश्छल और विनम्र स्वभाव के व्यक्ति हैं जिनमें अहंकार नाम की कोई चीज़ दूर-दूर तक भी नहीं है। दिल्ली में उस आयोजन के दौरान ही उन्होंने मुझे अपना यह ग़ज़ल संग्रह 'कुछ मीठा कुछ खारा' उदारतापूर्वक पढ़ने के लिए भेंट किया था।
आजकल काफ़ी लोग हिंदी में ग़ज़लें कह रहे हैं और हिंदी की ग़ज़लें काफी लोकप्रिय भी हो रही हैं क्योंकि उन्होंने  हिन्दी पाठकों का एक बहुत बड़ा वर्ग  तैयार कर लिया है। मूलतः ग़ज़ल उर्दू भाषा की देन समझी जाती है जिसमें अरबी तथा फ़ारसी के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है लेकिन समय के प्रवाह के साथ-साथ ग़ज़लों ने अपने उर्दू ,अरबी और फ़ारसी के दायरे में एक झरोखा हिंदी के लिए बनाया और हिंदी भाषा को भी ग़ज़लों ने बहुत सम्मान और प्यार के साथ अपने गले से लगाया है। हिंदी में पदार्पण करने के बाद ग़ज़लें जाम, मयख़ाना, पैमाना,साक़ी,लबो-रुख़सार,ज़ुल्फ़ें, आशिक़- ओ-माशूक़ की पगडंडियों को पार करते हुए उस खुले मैदान तक पहुॅंची जहाॅं उसके सामने भावनाओं, संवेदनाओं और कल्पनाओं का एक विशाल कैनवास है। बदलते वक़्त के साथ ग़ज़ल ने भी अपने आप को बदला है तथा उसने अपने आप को परंपरागत सीमित दायरे से निकाल कर समाज में व्याप्त चिंताओं,कुंठाओं और संघर्षों के साथ जोड़ा है। उसने भिन्न-भिन्न मानवीय संवेदनाओं को अपने अंदर समाविष्ट किया है। आज भिन्न-भिन्न विषयों पर बहुत अच्छी-अच्छी ग़ज़लें शायरों के द्वारा कही जा रही हैं ।सामाजिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक ,कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक समसामयिक विषय पर आजकल बहुत अच्छे-अच्छे अश्आर कहे जा रहे हैं जो काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। ग़ज़ल के शेर में भावनाओं के संप्रेषण की इतनी अद्भुत और प्रभावी क्षमता होती है कि दो मिसरों से बना एक शेर सीधे दिल पर असर करता है। यही कारण है कि सड़क से लेकर संसद तक आज ग़ज़लों के शेर कोट किये जा रहे हैं। ग़ज़लों को आज भावनाओं का विराट एवं विस्तृत आयाम मिल गया है। हमारे शहर रुड़की के एक बहुत ही संवेदनशील शायर पंकज त्यागी 'असीम' का यह शेर ग़ज़ल के बदलते स्वरूप को व्याख्यायित  करने के लिए शायद पर्याप्त होगा:-
बड़ी तादाद में शायर लबो-रुख़सार तक पहुॅंचे 
मगर मज़लूम के सब ग़म मेरे अश्आर तक पहुॅंचे।
         मैंने श्री ओंकार सिंह 'विवेक' जी के ग़ज़ल संग्रह 'कुछ मीठा कुछ खारा' में प्रकाशित सभी 87 ग़ज़लों को बहुत गम्भीरता  के साथ पढ़ा है। इन ग़ज़लों को पढ़कर बहुत आनंद आया और समय कब बीत गया पता ही नहीं चला। ग़ज़लों में एक ख़ास बात यह भी होती है कि एक ग़ज़ल में अगर 5 या 6 शेर हैं तो प्रत्येक शेर की भाव भूमि और विषय पृथक-पृथक हो सकते हैं। इस प्रकार शायर को अपनी एक ही ग़ज़ल में भिन्न-भिन्न विषयों पर केंद्रित 5 या 6 भावों को शेरों में पिरोने की आज़ादी रहती है। श्री ओंकार सिंह 'विवेक' जी की कल्पनाओं, भावनाओं और विषयों के चयन का कैनवास बहुत विस्तृत है। उनकी पैनी दृष्टि से सामाजिक आर्थिक ,धार्मिक क्षेत्र से संबंधित कोई भी पहलू बच नहीं सका है। उनकी ग़ज़लों में किसानों का दर्द है तो पर्यावरण की चिंता भी है, गिरते सामाजिक मूल्यों की कसमसाहट है तो राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा बढ़ती अनैतिकता पर आक्रोश भी है, मानवीय संवेदनाओं के क्षरण पर शायर को अफ़सोस है तो विखंडित होते रिश्ते- नातों से व्यथित भी है । श्री ओंकार सिंह विवेक की सभी ग़ज़लें यथार्थ परक तथा समाज को आईना दिखाने वाली हैं।उनके कटाक्ष पूर्ण अश्आर सीधे दिल को प्रभावित करते हैं तथा बहुत कुछ सोचने पर विवश भी करते हैं। उनकी ग़ज़लों की विशेषता यह है कि उन्होंने सरल, सहज, और आम बोलचाल की भाषा में अपनी ग़ज़लों को कहा है जो पाठकों तक सुगमता से अपना कथ्य पहुॅंचाने में सक्षम हैं और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती हैं ।कठिन शब्दों के प्रयोग से उन्होंने परहेज़ किया है। उनके लगभग सभी अश्आर किसी ना किसी विषय पर केंद्रित हैं तथा प्रेरणादायक हैं ।वैसे तो उनके सभी शेर  बेहतरीन एवं उत्कृष्ट हैं लेकिन यहाॅं सभी का उल्लेख किया जाना तो संभव नहीं है फिर भी मैं उनके कुछ अश्आर यहाॅं आपके अवलोकनार्थ उद्धृत कर रहा हूॅं ताकि आपको यह आभास हो सके कि यह गजल संग्रह पाठकों  के लिए कितना उपयोगी है:-

गुज़र आराम से अब करने लायक़ 
कहाॅं खेती - किसानी दे रही है 
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फलें - फूलें न क्यों नफ़रत की बेलें 
सियासत खाद -पानी दे रही है 
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शिकवे भी उनसे ही होंगे 
जिनसे थोड़ा अपना -पन है 
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सदा करते रहते हो तनक़ीद सब पर 
कभी आप अपना भी किरदार पढ़ना 
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दे जो सबको अन्न उगाकर 
उसकी ही रीती थाली है 
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मिल जाते हैं सुख-दुख दोनों ही उसमें 
जब यादों का बक्सा खोला जाता है 
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दूधिया ख़ुश है कि बेटे को भी अब 
दूध में पानी मिलाना आ गया 
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कसौटी पर खरा ख़बरों की जिनको कह नहीं सकते 
भरा ऐसी ही ख़बरों से सदा अख़बार होता है 
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लुत्फ़ क्या आएगा शराफ़त में 
आप अब आ गए सियासत में 
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चिंता ऐसे है मन के तहख़ाने में 
जैसे कोई घुन गेहूॅं के दाने में 
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घर की ज़रूरतों ने बड़ा कर दिया उसे 
बचपन के दौर में भी वो बच्चा नहीं रहा 
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मुसलसल वक़्त के सांचे में ढलकर 
बला का रंग निखरा ज़िन्दगी का 
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भूखे पेट जो सोते हैं फुटपाथों पर 
हमने उनका दर्द ग़ज़ल में ढाला है 
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आदमी के ज़ुल्म धरती पर भला कब तक सहूॅं 
गंग कहती है,बचा लो आज शिव आकर मुझे 
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क्या पता था हिंदू- ओ- मुस्लिम की बढ़ती भीड़ में 
एक दिन इंसान ऐसे लापता हो जाएगा 
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राज़ खुलेगा घोटालों का क्या उम्मीद करें 
वो भी सब दाग़ी हैं जिनसे जाॅंच करानी है 
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मिलेंगे नहीं फ़स्ल के दाम वाजिब 
किसानों पे मौसम की भी मार होगी 
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मुजरिमों को नहीं है डर कोई 
ख़ौफ़ में अब फ़क़त अदालत है 
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कितनी ख़बरों में मिलावट हो गई 
सच पता चलता नहीं अख़बार से 
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आरी थामे जंगल की जानिब जाते देखे 
जो कहते थे हरियाली की शान बचानी है 
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जुमले और नारे ही सिर्फ़ उछाले हैं 
मुद्दे तो हर बार उन्होंने टाले हैं 
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सच ये है,कुछ भी हालात नहीं बदले 
जनता तो बेचारी थी,बेचारी है 
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मेह बरसा के  ख़ुश्क फसलों पर 
मोतियों -सा बिखर गया मौसम 
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ऊॅंट के मुॅंह में रख दिया ज़ीरा 
ख़ाक राहत किसान तक पहुॅंची
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झूठा दावा है आपका साहिब 
रौशनी हर मकान तक  पहुॅंची
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साॅंस लेते ही मैं निढाल हुआ 
हाय!कैसा हवा का हाल हुआ 
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अच्छी तक़रीर कर गए हज़रत 
शहर में हर तरफ़ वबाल हुआ 
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गुज़र कैसे करें तनख़्वाह में फिर 
उन्हें रिश्वत की जो लत हो गई है 
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भा गई है नगर की रंगीनी 
अब कहाॅं उनको गाॅंव आना है 
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          इस प्रकार हम देख सकते हैं कि श्री ओंकार सिंह विवेक जी की ग़ज़लों में मानवीय संघर्षों और उसकी विवशताओं की अनुभूति व्यापक रूप से झलकती है। उनकी ग़ज़लों का शब्द संयोजन तथा बिम्ब संयोजन बेहतरीन है। यह ग़ज़लें भाव पक्ष एवं कला पक्ष की दृष्टि से उत्तम हैं। सभी अश्आर संदेशात्मक तथा प्रेरणादायक हैं।यह ग़ज़ल संग्रह पाठकों के लिए पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है। शानदार ग़ज़लों से लबरेज़ एक उत्कृष्ट ग़ज़ल संग्रह को प्रकाशित कराने के लिए मैं आदरणीय ओंकार सिंह विवेक जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं प्रेषित करता हूॅं और आशा करता हूॅं कि भविष्य में भी हमें उनकी और अच्छी-अच्छी ग़ज़लें पढ़ने को मिलती रहेंगी।
           शुभकामनाओं के साथ 
सुरेन्द्र कुमार सैनी, रुड़की 
मो.न.7906191781

(प्रस्तुतकर्ता : ओंकार सिंह विवेक) 

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