पुस्तक समीक्षा
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कृति : 'नदी की प्यास' (ग़ज़ल-संग्रह)
कृतिकार : डॉo उषा झा रेणु
प्रकाशक : हंस प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2024 मूल्य : 395 रुपए
पुस्तक परिचय प्रदाता/समीक्षक : ओंकार सिंह विवेक
काव्यकार अपने हृदय की कोमल अनुभूतियों को विभिन्न काव्य विधाओं यथा गीत, नवगीत, दोहा, मुक्तक, कुंडलिया, घनाक्षरी तथा ग़ज़ल आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।जहां तक ग़ज़ल की बात है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज ग़ज़ल का जादू काव्यकारों के सिर चढ़कर बोल रहा है। यही कारण है कि मूलतय: अरबी और फ़ारसी भाषाओं में कही गई ग़ज़ल आज उर्दू, हिन्दी ही नहीं अपितु विश्व की अनेक भाषाओं में कहीं जा रही है। ग़ज़ल के दो मिसरों में ही एक बड़े कथ्य को चुस्ती के साथ इस प्रकार पिरो दिया जाता है कि सुनने वाला वाह वाह करने के लिए मजबूर हो जाता है। ग़ज़ल की मारक क्षमता को लेकर स्वर्गीय कृष्ण बिहारी नूर साहब का यह शेर याद आ रहा है मुझे
मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा,
सब अपने-अपने चाहने वालों में खो गए।
ग़ज़ल की सार्थकता इसी में है कि उसका एक-एक शेर ऐसा हो कि उसकी गहराई में उतरकर पढ़ने और सुनने वाला विचार मग्न हो जाए।
कुछ समय पूर्व प्रसिद्ध ग़ज़लकार दीक्षित दनकौरी जी द्वारा आयोजित ग़ज़ल कुंभ हरिद्वार के कार्यक्रम में जाना हुआ था। वहां देहरादून, उत्तराखंड निवासी साहित्यकार डॉ उषा झा रेणु जी ने मुझे अपने ग़ज़ल संग्रह 'नदी की प्यास' की एक प्रति भेंट की थी।पुस्तक को तन्मयता के साथ पढ़कर मन में विचार आया कि इसके बारे में आप सब के साथ अपने विचार साझा करूं।
ग़ज़ल कहने का जहां तक प्रश्न है प्राय: यह देखने में आता है कि ग़ज़ल की बहर /मापनी और रदीफ़- क़ाफ़ियों आदि का मिलान करना तो जल्दी आ जाता है लोगों को परंतु ग़ज़ल की कहन को पुख़्ता करने में समय लगता है। लेकिन अच्छे शायरों के कलाम को पढ़कर और निरंतर अभ्यास से ग़ज़ल में तग़ज़्ज़ुल एवं कहन का चमत्कार पैदा करना कोई इतना मुश्किल काम भी नहीं है। यह व्यक्ति की व्यक्तिगत क्षमताओं एवं सलाहियतों पर निर्भर करता है की कितनी जल्दी वह अपनी ग़ज़लों में आकर्षण पैदा कर पाता है।
रेणु जी के ग़ज़ल संग्रह 'नदी की प्यास' की ग़ज़लों की जहां तक बात है उनमें रिवायती ग़ज़लें भी हैं और सामाजिक सरोकारों पर भी रचनाकार की दृष्टि पड़ी है। रेणु जी की पुस्तक में भाषा के स्तर पर साफ़ सुथरे काफी अशआर हैं जो ध्यान खींचते हैं। उनमें से कुछ आपके साथ साझा करना मैं ज़रूरी समझता हूं
ग़म दिए जिसे ज़माने भर के,
उसकी ख़ातिर भी दुआ है अब तो।
ग़म देने वाले और सताने वाले की भी भलाई की बात सोचने वाले व्यक्ति की संवेदनशीलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
जोड़कर दौलत उषा फिर क्या मिला इंसान को,
एक दिन आख़िर सभी कुछ छोड़ कर जाना पड़ा।
शख्स वह नफ़रत करे करता रहे पर,
मुस्कुरा कर क्यों न उससे प्यार कर लूं।
पहले शेर में रचनाकार ने कहा है कि जब अंत समय में कुछ साथ ही नहीं जाना तो फिर धन दौलत को ज़िंदगी भर जोड़ने का क्या लाभ है भला? यह बात बार-बार कुछ सोचने को विवश करती है।इसी प्रकार दूसरे शेर में बांधा गया भाव इंसानियत की कितनी बड़ी सीख देता है कि नफ़रत करने वाले आदमी से प्यार करने का जज़्बा हमें अपने दिल के अंदर पैदा करना चाहिए।
रखना है भारती का हमें मान तब तलक,
जब तक हमारे जिस्म में बाक़ी लहू रहे।
इस शेर में देश प्रेम का क्या जज़्बा दिखाई पड़ता है।
रचनाकार की ग़ज़ल के प्रति दीवानगी दर्शाता यह शेर भी देखें
धुन ग़ज़ल की मुझे लगी ऐसी,
बहर से क़ाफ़िया मिलाया था।
रेणु जी के सादा ज़बान में कह गए कुछ और शेर देखिए जो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाते हैं
ज़िंदगी में जो इल्म पाना है,
संग उस्ताद की दुआ रखिए।
जिसे माना उषा हमने मसीहा,
वही ख़ुशियों का क़ातिल हो रहा है।
भले ही दूर वो मुझसे गया पर,
मोहब्बत आज तक दिल में न कम है।
जो जान देकर वफ़ा निभाई तभी तो रिश्ते में जान आई,
युगों-युगों से यह सारी दुनिया हमारा क़िस्सा सुना रही है।
कभी ज़ीस्त में वक्त प्यारा भी होगा,
ग़मों के भंवर का किनारा भी होगा।
नित चुनौती से घिरी है ज़िंदगी,
हौसलों से पर सजी है ज़िंदगी।
सँवारा है सृजन पथ को मेरे जिन मित्र वृंदों ने,
मिला आशीष जिनसे वो सुख़नवर याद आते हैं।
जो मिला है उषा को जीवन में,
वह ख़ुदा की ही तो इनायत है।
किसान की व्यस्तता और उसकी कठोर मेहनत को चित्रित करता हुआ यह शेर भी देखें
रोज़ निकला किसान हल लेकर,
सूर्य जब आसमान से निकला।
सच्ची मोहब्बत की बात करता उनका यह मतला भी ग़ौर करने योग्य है
उनसे बिछड़ के उनको भुलाया नहीं गया,
मायूस दिल कहीं पे लगाया नहीं गया।
सबके भले की कामना करता यह शेर भी देखें
सुकूं से सफ़र ज़िंदगी का कटे,
सभी के लिए हम दुआ कर चले।
इश्क़ - मोहब्बत,सामाजिक विसंगतियाँ,सद्भावना, मानवीय संवेदनाएं, प्रकृति प्रेम आदि सभी महत्वपूर्ण विषयों पर रचनाकार ने लेखनी चलाई है जिससे उनकी संवेदनशीलता का पता चलता है। ग़ज़ल संग्रह की भाषा बहुत सरल है जिसके कारण पाठक- श्रोता का सीधे रचनाकार से संवाद स्थापित हो जाता है। थोड़ी- बहुत टंकण त्रुटियां संकलन में छूट गई हैं जैसा अक्सर होता भी है। रेणु जी की बोलचाल की भाषा में आंचलिकता का पुट होने के कारण खड़ी बोली हिंदी में कहीं-कहीं वाक्य में व्याकरण का दोष उत्पन्न हो गया है जिसे नज़र अंदाज़ भी किया जा सकता है।
रेणु जी के बारे में इतना ही कहना चाहूंगा कि अगर वे इसी प्रकार मन से अभ्यास और मेहनत करती रहीं तो निश्चित ही एक दिन अपनी कहन में निखार के साथ धारदार ग़ज़लें कहने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करने में सफल होंगी।मैं डॉक्टर उषा झा रेणु जी के सुखी एवं समृद्ध जीवन की कामना करता हूं तथा उन्हें अपना यह दोहा समर्पित करते हुए बात समाप्त करता हूं :
दफ़्तर में भी धाक है, घर में भी है राज।
नारी नर से कम नहीं, किसी बात में आज।।
---- ओंकार सिंह विवेक
साहित्यकार /समीक्षक/ कंटेंट राइटर
'नदी की प्यास' ग़ज़ल-संग्रह की समीक्षा🌷🌷👈👈
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