पुस्तक परिचय
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कृति : 'धूप के क़तरे' ग़ज़ल-संग्रह
कृतिकार : डॉo घनश्याम परिश्रमी,नेपाल
प्रकाशक : शब्दार्थ प्रकाशन,चाबेल,काठमांडू (नेपाल)
प्रकाशन वर्ष : 2023
परिचय प्रदाता : ओंकार सिंह विवेक
आज ग़ज़ल साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधाओं में से एक है। मूलतय: अरबी और फारसी भाषाओं से होते हुए ग़ज़ल उर्दू तथा हिंदी भाषाओं में आई। एक समय था जब इश्क़/मोहब्बत के तमाम पहलुओं को ही ग़ज़ल का कथ्य बनाया जाता था। लेकिन आज की ग़ज़ल जीवन और समाज से जुड़े हर पहलू को अपने में समेटे हुए है। ग़ज़ल अब किसी एक भाषा की न रहकर अपनी भाषा ख़ुद गढ़ रही है। कल्चर के रूप में ग़ज़ल अपने आप में एक इतिहास,रिवायत और संस्कार को समाहित किए हुए है। ग़ज़ल की मक़बूलियत का आलम यह है कि आज यह हिंदी और उर्दू में ही नहीं वरन दुनिया की तमाम भाषाओं और बोलियों में कहीं जा रही है।वर्तमान में ग़ज़ल नेपाली भाषा में भी उतनी ही मक़बूल है जितनी कि हिन्दी भाषा में।इस समय मेरे हाथ में नेपाली भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ घनश्याम परिश्रमी जी का हिंदी भाषा में प्रकाशित पहला ग़ज़ल-संग्रह 'धूप के क़तरे' है।
आइए इस ग़ज़ल संग्रह पर गुफ्तगू करने से पहले डॉक्टर घनश्याम परिश्रमी जी के बारे में थोड़ी सी जानकारी किए लेते हैं। डॉक्टर घनश्याम परिश्रमी जी ने त्रिभुवन विश्वविद्यालय काठमांडू,नेपाल से अध्यापन कार्य के बाद अवकाश ग्रहण किया है और वर्तमान में पूरी तरह साहित्य साधना में निमग्न हैं।आपका नेपाली भाषा के साथ-साथ संस्कृत तथा हिंदी भाषाओं पर भी अच्छा अधिकार है। नेपाली भाषा में आपके कई ग़ज़ल संग्रह तथा अन्य साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
हिंदी भाषा में 'धूप के क़तरे' परिश्रमी जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है। ज़ाहिर है कि हिन्दी ग़ज़ल के सफ़र में यह उनकी शुरुआत भर है,आगे यह सफ़र और भी सुहावना होता जाएगा,हम ऐसी आशा करते हैं। अब इस ग़ज़ल संग्रह के पन्ने पलटते हैं। इस संकलन की शीर्षक ग़ज़ल का यह शेर देखें
ठिकाना ढूंढते हैं कुछ उजाले रूह के अंदर,
बदन पर जम रहे हैं मुद्दतों से धूप के क़तरे ।
एक और शेर देखें
निहाँ एक मुद्दत तेरे दिल के अंदर,
मेरी ज़िंदगी की कहानी रही है।
इन अशआर से ही आपको परिश्रमी जी के तेवर और उनकी फ़िक्र का अंदाज़ा हो गया होगा।
ख़ुशख़बर आज तेरी आई है,
तुझको दिल से बहुत बधाई है।
सादा ज़बान में कहा गया यह शेर ग़ज़लकार की संवेदनाओं का परिचय देता है।आर्थिक और सामाजिक भेदभाव प्राचीन काल से ही हर समाज का हिस्सा रहे हैं।इस व्यवस्था को दर्शाता हुआ यह मार्मिक शेर देखिए
आप कुर्सी पर बैठिए मलिक,
ख़ैर ,मेरे लिए चटाई है।
कवि को एक तरफ सामाजिक परिस्थितियाँ,राजनैतिक परिदृश्य,प्राकृतिक घटनाक्रम जैसी चीज़ें सृजन के लिए प्रेरित करती हैं तो दूसरी तरफ स्वयं उसकी विचारधारा और स्वाभाविक रुचियाँ भी उसके काव्य सृजन का विषय बन जाती हैं। रचनाकार ने ग़ज़ल के प्रति अपने लगाव को कितनी ख़ूबसूरती से इस शेर में कह दिया है
दिल ख़ुश रहता है मेरा,
यार ग़ज़ल की महफ़िल में।
कविता वही प्रभावशाली मानी जाती है जो कोई सार्थक संदेश दे और जिसकी भाषा आम आदमी की भी आसानी से समझ में आ जाए। परिश्रमी जी के इस संदर्भ में ये दो शेर देखिए
होठों पर मुस्कान रखो तुम,
ख़ुद अपनी पहचान रखो तुम।
मैंने कह दी अपनी ख़्वाहिश,
अब अपना अरमान रखो तुम।
दुनिया में जब तमाम दोस्त अपने-अपने स्वार्थ के चलते आदमी से दूरी बना लेते हैं तो ग़ज़लकार परिश्रमी जी के क़लम से यह शेर निकलता है
साथ नहीं अब मेरे कोई,
दूर गए हैं यार पुराने।
आज हर आदमी अपनी उलझनों, परेशानियों और ग़मों में मुब्तिला है। किसी के पास वक्त ही कहां है जो दूसरे के ग़मों को समझे और हमदर्दी दिखाए।रचनाकार का यह शेर
मुसीबत में तुम थे मुसीबत में हम थे,
तुम्हारे भी ग़म थे हमारे भी ग़म थे।
डॉ घनश्याम परिश्रमी जी ने यदि रिवायती अशआर कहे हैं तो सामाजिक विसंगतियों तथा आम आदमी के मसाइल को भी उन्होंने अपने अशआर में बांधा है अर्थात उनके चिंतन का फ़लक काफी व्यापक है। किसी ग़ज़ल में यदि कुछ मुश्किल शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग किया है रचनाकार ने तो उस ग़ज़ल के नीचे मुश्किल शब्दों के अर्थ लिख दिए गए हैं जो एक अच्छी बात लगी मुझे इस संकलन की। इतना ही नहीं हर ग़ज़ल के नीचे उसकी बहर/मापनी भी लिखी है और ग़ज़लकार ने मापनी के निर्वहन का भरसक प्रयास भी किया है। जहां तक ग़ज़ल की कहन और शेरों में तग़ज़्ज़ुल पैदा करने की बात है यह निरंतर अभ्यास से ही संभव हो पाता है। परिश्रमी जी ने पुस्तक में अपनी बात कहते हुए इसका चर्चा भी किया है कि हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में उनका यह पहला प्रयास है अतः त्रुटियां होना स्वाभाविक है। ग़ज़लकार की इस साफ़गोई की हमें तारीफ़ करनी चाहिए। वैसे भी अपने सृजन को बेहतर करने की संभावनाएं रचनाकार में हमेशा बनी रहनी चाहिए ऐसा मेरा मानना है। पुस्तक में टंकण,वाक्य विन्यास या व्याकरण आदि की त्रुटियों को लेकर कुछ और सजग हुआ जा सकता था ऐसा मुझे महसूस होता है।
मैं डॉक्टर घनश्याम परिश्रमी जी के दीर्घायु होने की कामना करता हूं ताकि भविष्य में हमें उनकी और भी बेहतर काव्य कृतियां पढ़ने को मिलें। श्री परिश्रमी जी के जोश,जज़्बे और ग़ज़ल के प्रति जुनून को देखते हुए मुझे जलील आली साहब का यह शेर याद आ रहा है :
रास्ता सोचते रहने से किधर बनता है,
सर में सौदा हो तो दीवार में दर बनता है।
-- जलील आली
डॉ घनश्याम परिश्रमी जी का ग़ज़ल के प्रति यह जुनून यूं ही क़ायम रहे इन्हीं शुभकामनाओं के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं।
ओंकार सिंह विवेक
साहित्यकार/समीक्षक/कॉन्टेंट राइटर
'धूप के क़तरे' ग़ज़ल-संग्रह की समीक्षा🌹🙏👈👈
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