साथियो आज अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस है। प्रतीकात्मक रुप से इस दिन दुनिया के दीन-हीन लोगों की दशा को लेकर ख़ूब वार्ताएं और गोष्ठियां आयोजित की जाएंगी। श्रम क़ानूनों पर व्याख्यान होंगे। मज़दूरों की दशा पर घड़ियाली आंसू बहाए जाएंगे परंतु बेचारे मज़दूर की दशा में तब तक कोई ख़ास अंतर नहीं आना है जब तक उनके लिए कुछ ठोस क़दम न उठाए जाएं।
ख़ाली जेब,सिर पर बोझा और पांवों में छाले,यही मुक़द्दर है एक श्रमिक का।गर्मी,वर्षा और जाड़े सहते हुए बिना थके और रुके काम में लगे रहना ही उसकी नियति है। मेहनत करके रूखी-सूखी मिल गई तो खा ली,वरना पानी पीकर खुले आकाश के नीचे सो गए।उसकी पीड़ा को भी काश ! कभी ढंग से समझा जाए।उसे उसकी मेहनत का पूरा दाम मिले, बिना भेद भाव के शासन/प्रशासन उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्याओं के प्रति गंभीर हो।
मज़दूर वर्ग से काम लेने के नीति और नियमों में आवश्यकतानुसार सुधार किए जाएं तभी इस वर्ग का कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है।
प्रसंगवश मुझे अपनी अलग-अलग ग़ज़लों के दो शे'र तथा कुछ दोहे और मुक्तक याद आ गए :
शेर
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कहां क़िस्मत में उसकी दो घड़ी आराम करना है,
मियां ! मज़दूर को तो बस मुसलसल काम करना है।
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उसे करना ही पड़ता है हर इक दिन काम हफ़्ते में,
किसी मज़दूर की क़िस्मत में कब इतवार होता है।
***दोहे
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करना है दिन भर उसे, काम काम बस काम।
बेचारे मज़दूर को, क्या वर्षा क्या घाम।।
लिया गया सामर्थ्य से,बढ़कर दिन भर काम।
दिया न पर मज़दूर को,श्रम का पूरा दाम।।
मुक्तक
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न ही भर पेट खाता है न पूरी नींद सोता है,
हमेशा पीठ पर क़ुव्वत से बढ़कर बोझ ढोता है।
जिसे श्रम की कभी अपने उचित क़ीमत नहीं मिलती,
वही मज़दूर होता है वही मज़दूर होता है।
©️ ओंकार सिंह विवेक
मज़दूर दिवस पर सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार आदरणीया 🙏
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