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ख़ूब देकर ख़बर गया मौसम,
ख़ौफ़ ज़हनों में भर गया मौसम।
लोग मिलते थे बिन ग़रज़ के यहाँ,
वो तो कब का गुज़र गया मौसम।
मेह बरसाके ख़ुश्क फ़सलों पर,
मोतियों-सा बिखर गया मौसम।
आह निकली है अन्नदाता की,
हाय ! क्या ज़ुल्म कर गया मौसम।
की गई छेड़-छाड़ क़ुदरत से,
यूँ ही थोड़ी बिफर गया मौसम।
खिल उठा दिल, जब उनकी यादों का,
सहने-दिल में उतर गया मौसम।
देखिए तो 'विवेक' ! घाटी के,
हुस्न पर जादू कर गया मौसम।
©️ ओंकार सिंह विवेक
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