January 28, 2025

प्रख्यात ग़ज़लकार श्री द्विजेंद्र द्विज जी द्वारा ग़ज़ल संग्रह 'कुछ मीठा कुछ खारा ' की समीक्षा

                                                  

आदरणीय द्विजेन्द्र द्विज जी द्वारा भेजी गई मेरे दूसरे ग़ज़ल संग्रह 'कुछ मीठा कुछ खारा' की समीक्षा   

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सार्थक चिंतन के विभिन्न रंगों की प्रस्तुति:

                    -- द्विजेंद्र द्विज 

ग़ज़ल के शे’र सड़क से संसद तक दोहे और चौपाई की तरह उद्धृत किए जाते हैं। यह तथ्य  ग़ज़ल विधा की अप्रतिम संप्रेषण संपन्नता और मारक क्षमता का परिचायक है।ग़ज़ल विधा के विस्तृत कैनवस पर हमारे समस्त जीवनानुभव उभर आते हैं।शायर अपनी अनुभूतियों को शे’र के दो मिसरों में अविस्मरणीय,उद्धरणीय और अपने  अलग अंदाज़ में  प्रस्तुत करता है।यह ख़ूबी ओंकार सिंह विवेक के प्रस्तुत संग्रह 'कुछ मीठा कुछ खारा' में भी है।'कुछ मीठा कुछ खारा' उनकी ग़ज़ल यात्रा का दूसरा पड़ाव है जबकि उनका पहला ग़ज़ल संग्रह 'दर्द का अहसास' वर्ष 2021 में प्रकाशित हो चुका है। 

श्री ओंकार सिंह विवेक को ग़ज़ल विधा के भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों की समझबूझ है,उनके शे’रों की कहन का एक अपना ही अंदाज़ है।यही नहीं ग़ज़ल के परिष्कार को लेकर उनका विद्यार्थी भाव भी सराहनीय है। 

प्रस्तुत  संकलन की तमाम ग़ज़लों को पढ़ लेने के बाद ओंकार जी का यह शे’र  बार-बार याद आएगा—

ज़ह्न में इक अजीब हलचल है,

शे’र  ऐसे   सुना   गया  कोई।

निःसंदेह इन ग़ज़लों को पढ़कर मन मस्तिष्क में मचने वाली अजीब हलचल और बेचैनी, इस संजीदा शायर के चिंतन की व्यापकता का  पता देती है। ओंकार सिंह विवेक अपने समय की चिंताओं और चुनौतियों को, जीवन के मीठे और खारेपन को उसकी समग्रता में अपने सजग चिंतन के विभिन्न रंगों में प्रस्तुत करते हैं।वे अपने जागृत विवेक,अनुभव और भाव सम्पन्नता के साथ,सहज,सरल और आमफ़हम भाषा में शे’र कहते हैं।

चुप्पियाँ अगर महत्वपूर्ण संदेश हैं तो साथ ही समय की माँग पर मुखर हो जाना भी अत्यंत आवश्यक है। शे’र–

ध्यान सभी का देखा ख़ुद पर तो जाना,

चुप रह कर भी कितना बोला जाता है।

हरदम तो ख़ामोशी ओढ़ नहीं  सकते,

यार कभी तो मुँह भी खोला जाता है।

उनके मुखर होने की यही आकस्मिकता,विवशता और 

आवश्यकता उनके शे’रों की प्रभावशाली और प्रशंसनीय प्रश्नवाचकता में ढलती है —

इंसानियत  का  दर्स  ही  जब  सबका अस्ल है,      

फिर क्यों  किसी भी धर्म को आख़िर बुरा कहें?

है  रहज़नों   से   उनका   यहाँ  राबिता-रसूख़,

तुम  फिर भी  कह  रहे  हो  उन्हें रहनुमा कहें?

ओंकार सिंह ‘विवेक’ मानते हैं कि सियासत और शराफ़त परस्पर विरोधी शब्द हैं। वे कहते हैं–

लुत्फ़  क्या  आएगा  शराफ़त  में,

आप  अब  आ  गए सियासत में।

जनापेक्षाओं को धत्ता बता कर  सियासतदाँ अपने हित में चोला और पाला बदलना जानता है।सियासत के पास  ख़रीदो-फ़रोख़्त का हथकंडा है, ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ राजनीतिक विवशता है—

बदला    रातों - रात   उन्होंने  पाला है ,

शायद  जल्द  इलेक्शन  आने  वाला है।

आप  सियासत-दाँ हैं, ख़ूब समझते  हैं,

बदला  कैसे  हर   दिन  चोला जाता है।

सियासत आम आदमी को विवेक शून्य बनाने पर तुली रहती है। सियासत की ज़मीन को उपजाऊ रहने के लिए घृणा और नफ़रत का उर्वरक चाहिए। यह पीड़ा ओंकार सिंह विवेक के शे’रों में इस तरह ढलती है —

इंसाँ  ही प्यासा हो  गया इंसाँ  के   ख़ून   का,

वहशत  नहीं   कहें  तो  इसे  और  क्या  कहें।

अम्नो-अमां  की  बातें  करने वालों  के,

हाथों   में   कैसे   ये   बरछी-भाले   हैं।

फलें-फूलें न क्यों नफ़रत  की  बेलें,

सियासत  खाद-पानी  दे  रही   है।

पूर्वाग्रहों के  अँधेरों के पक्षधर मानसिक रोगी ही तो हैं—

हिमायत वो  ही  करता है  त'अस्सुब के अँधेरों  की,

हमेशा  ज़ह्न   से    जो  आदमी   बीमार   होता  है।

सियासी हठधर्मिता,प्यार की धरती पर नफ़रत की बेलें उगाने  और नफ़रत के टीले फैलाने पर तुली हुई है। ये विष बेलें और घृणा के टीले आपसी सद्भाव और सौहार्द से ही ध्वस्त हो सकते हैं—-

जैसे  भी  संभव   हो  पाए , प्यार   की  धरती  से,

ध्वस्त  हमें  मिलकर   नफ़रत  के  टीले  करने  हैं।

वन-संपदा को निरंतर निगलते जा रहे शहरीकरण के अजगर के आतंक पर ओंकार सिंह विवेक का मर्मस्पर्शी शेर -- 

          बारहा रोता है दिल ये सोचकर,

          वन कटेगा शहर के विस्तार में।

विवेक जी के शेरों में गेहूँ के दाने में घुन जैसी मन के तहख़ाने में बैठी चिंताएं हैं,दिल के वीराने में यादों के डेरे की रौनक़ भी है, झील सी नीली आँखों में चाहत के संसार की झलक भी है। सौदाई के स्वप्न जैसी ज़िंदगी में आस की सुनहरी धूप है तो मायूसी की धुंध भी है,स्वार्थी रिश्तों में मिली कड़वाहट है तो सुहानी यादों की मिठास भी है -- 

          उनकी याद ने दिल में क्या डेरा डाला,

           रौनक़ ही  रौनक़  है इस  वीराने  में।

            हमें झील-सी नीली आँखों में उनकी,

            लगा अच्छा चाहत का संसार पढ़ना।

'प्राण जाएँ पर वचन न जाई' की रीति अब पुरानी होती जा रही है,ऐसे में यह शेर -- 

          शुक्र समझो कि इस ज़माने में,

           क़ौल अपना निभा गया कोई।

आभासी दुनिया को,आज के समाज को अपने अंतर्मन को सजाने की चिंता कम और बाहरी दिखावे की धुन अधिक है -- 

           फ़िक्र नहीं है आज किसी को रूह सजाने की,

            सबको एक ही धुन है, जिस्म सजीले करने हैं।

औरों में मीन-मेख निकालने वालों के पास अपने चरित्र को पढ़ने की चिंता नहीं है -- 

    सदा करते रहते हो तनक़ीद सब पर,

    कभी आप अपना भी किरदार पढ़ना।

अपने श्रम से,अपने ख़ून पसीने से इतिहास रचने वाले श्रमिक की व्यथा  और  किसान की  पीड़ा, सदियों के अंतराल के के बाद भी जस की तस  है। श्री ओंकार सिंह विवेक का यह मार्मिक शे’र —

उसे करना ही पड़ता है हर इक दिन काम हफ़्ते में,

किसी मज़दूर की क़िस्मत में  कब इतवार होता है?

और अन्नदाता किसान की व्यथा—

दे  जो  सबको  अन्न  उगाकर,

उसकी  ही   रीती   थाली है।

आजकल भ्रष्टाचार  भी अपवाद नहीं रह गया है, नियम बन चुका है। नैतिक मूल्यों के विघटन की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि दूधिया पिता इस बात से खुश है कि बेटे ने भी दूध में पानी मिलाना सीख लिया है।ओंकार सिंह विवेक का शे’र—

दूधिया ख़ुश  है कि बेटे को भी अब, 

दूध  में   पानी  मिलाना  आ   गया।

आत्म सम्मान अथवा ख़ुद्दारी जैसी चीज़ को ताक़ पर रखकर जी हुज़ूरी करने वाले लोग दरबारों की शोभा बढ़ाते हैं, श्रेष्ठ पद पाते हैं जबकि सच्चे लोग निर्वासन का दंश झेलने को विवश हो जाते हैं। 

    झूठे   मंसब   पाते   हैं   दरबारों   में,

    सच्चों की क़िस्मत में देश निकाला है।

विवेक ‘जी -हुज़ूर’ दरबारियों को यूँ चेताते  हैं—

पड़ेगा  हाथ  बाँधे  ही   खड़े  होना   वहाँ  तुमको,

मेरे   भाई  सुनो!  दरबार   तो   दरबार   होता  है।  

सियासत का काम जुमले और नारे उछालना है ।असली समस्याओं को तो सियासत टालती भर है—

जुमले  और  नारे  ही  सिर्फ़ उछाले हैं,

मुद्दे   तो   हर   बार  उन्होंने  टाले   हैं।

जो समस्या अस्तित्व में ही नहीं है उसे काल्पनिक अस्तित्व देकर प्रस्तुत करना सियासत का आचरण है।जबकि शायर का आचरण सियासत के  इस आचरण से असहमति है,ओंकार सिंह विवेक पूछते हैं—

हम   कैसे  ठीक  आपका   ये   मशवरा  कहें,

जो   मुद्दआ  नहीं   है    उसे   मुद्दआ    कहें?

लोकतंत्र के अत्यंत महत्वपूर्ण स्तम्भ ‘अख़बार’ की ख़बरों पर उनका यह शेर भी समीचीन है–

कसौटी पर खरा ख़बरों की जिनको कह नहीं सकते,

भरा  ऐसी  ही   ख़बरों  से   सदा अख़बार  होता  है।

सियासत की ज़हरीली मकड़ी  एक अदृश्य भय बुनती है ; परिणामस्वरूप—

रात को कह रहा है  दिन देखो,

ख़ौफ़ इतना दिखा गया कोई।

अम्न   कैसे   न  आए  दहशत  में,

हर   तरफ़  जंग  की  अलामत  है।

मुजरिमों  को   नहीं  है   डर  कोई,

ख़ौफ़  में  अब  फ़क़त अदालत है।

आँधियों की चुनौती के सामने दिए के जलते रहने के अज़्म के और भी बुलन्द होने’ का सुखद मंज़र—

और भी जलने  का उसमें  हौसला कुछ  बढ़ गया,

इक  दिये को आँधियों की  धमकियाँ अच्छी लगीं।

‘हवाओं से सामना’ एक अटल सत्य है, इस लिए चराग़ इस सत्य को कोई समस्या ही नहीं मानते—

मालूम   है    कि   होगा  हवाओं   से  सामना,

फिर  किस  लिए  चराग़  इसे  मसअला  कहें।

आसमाँ  का दंभ तोड़ने के लिए निरंतर पर तौले हुए  परिंदों का हौसला— 

गुमाँ   तोड़ेंगे  जल्दी    आसमाँ  का,

परिंदे     हौसला     हारे     नहीं    हैं।

पागल मौजों का  ग़ुरूर तोड़ कर साहिलों की ओर लौटती कश्तियों के सुहाने दृश्य  भी ओंकार सिंह विवेक की ग़ज़लों में हैं—

तोड़कर  सारा  गुमां मग़रूर मौजों का 'विवेक',

साहिलों पर लौटती सब कश्तियां अच्छी लगीं।

जीवन पथ को चुनौतियों से भरपूर देखकर विवेक जी कहते हैं—

हँसते - हँसते   तय    रस्ते   पथरीले    करने  हैं,

हमको    बाधाओं   के    तेवर    ढीले  करने  हैं।


अगर  कुछ   सरगिरानी  दे  रही है,

ख़ुशी   भी  ज़िंदगानी  दे  रही  है।


चलो  मस्ती   करें, ख़ुशियाँ  मनाएँ,

सदा  ये   ऋतु   सुहानी  दे  रही है।


एक और उद्धरणीय   शे’र –        

हो   गया    गुफ़्तगू   से   अंदाज़ा,

कौन  रहता  है  कैसी  सुहबत में।

ख़यालों की ऐसी उड़ान विवेक जी की ग़ज़लों को यूँ ही रवानी देती रहे! 

एक और ग़ज़ल संग्रह के लिए  शुभकामनाओं सहित,

–द्विजेन्द्र द्विज

13/160, 

निकट गवर्नमेंट आई. टी.आई. घर्मशाला,

लोअर बड़ोल ,दाड़ी-176057, हिमाचल प्रदेश 

(प्रस्तुतकर्ता : ओंकार सिंह विवेक)


शानदार कवि सम्मेलन 🌹🌹👈👈








          


        










     






       




       







    




                                                 










    



                                                         










     






       




       







        





     






        





     





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