नमस्कार मित्रो 🌹🌹🙏🙏दोस्तो पसंदीदा विधा ग़ज़ल को लेकर पहले भी मैं ब्लॉग पर कई पोस्ट्स लिख चुका हूं। उन पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त हुई हैं। ग़ज़ल विद्या में यह आसानी तो होती ही है कि आप एक ही ग़ज़ल में तमाम कथ्यों/पहलुओं को पिरो सकते हैं। जीवन, समाज तथा प्रकृति आदि के विविध रूपों को ग़ज़ल के शिल्प का पालन करते हुए एक ही ग़ज़ल के विभिन्न शे'रों में बांध सकते हैं।
आपकी प्रतिक्रिया हेतु अपनी एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं जो शीघ्र ही आपको मेरे नए ग़ज़ल संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" में भी दिखाई देगी।इस ग़ज़ल के अशआर में घटते जल संसाधनों की चिंता है,इंसानियत के जज़्बे की अक्कासी है,परिवार में पिता की सहनशीलता की बानगी है,आदमी के घमंड पर चोट है,उसूलों की खिल्ली उड़ाते वर्तमान दौर की विदाई की कामना है तथा चुनावों के समय किए जाने वाले हवा-हवाई वा'दों का भी ज़िक्र है।
©️
कुओं-तालों में अब पानी नहीं है,
नदी में भी वो तुग़्यानी नहीं है।
सभी के ज़ख्मों पर रखना है मरहम,
किसी को चोट पहुँचानी नहीं है।
दुखों में भी ये कहते थे पिता जी,
मुझे कुछ दुख-परेशानी नहीं है।
करे जो ज्ञान पर अभिमान अपने,
वो कुछ भी हो मगर ज्ञानी नहीं है।
ख़ुदा-रा ख़त्म हो ये दौर इसमें,
उसूलों की निगहबानी नहीं है।
चुनावी घोषणा ठहरी चुनावी,
'अमल में वो कभी आनी नहीं है।
अलग हों शे'र में मिसरों की बहरें,
ग़ज़ल में इतनी आसानी नहीं है।
©️ ओंकार सिंह विवेक (शीघ्र प्रकाश्य "कुछ मीठा कुछ खारा" से)
Vah vah, umda peshkash
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteवाह!! बेहतरीन शायरी
ReplyDeleteआभार आदरणीया।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 8 आक्टूबर 2024 को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
हार्दिक आभार आदरणीया, ज़रूर।
DeleteBahut sundar
ReplyDeleteआभार
Delete