अलग जीवन की रंगत हो गई है,
भलों की जब से सोहबत हो गई है।
कहा है जब से उसने साथ हूँ मैं,
हमारी दूनी ताक़त हो गई है।
तलब करने लगी अब हक़ रि'आया,
चलो इतनी तो हिम्मत हो गई है।
शिकायत कुछ नहीं हमको ग़मों से,
ग़मों को ये शिकायत हो गई है।
गुज़र कैसे करें तनख़्वाह में फिर,
उन्हें रिश्वत की जो लत हो गई है।
है जस की तस ही,लेकिन फ़ाइलों में,
ग़रीबी कब की रुख़सत हो गई है।
हमें भाये भी कैसे सिन्फ़ दूजी,
ग़ज़ल से जो मुहब्बत हो गई है।
©️ ओंकार सिंह विवेक
वाह ! उम्दा शायरी
ReplyDeleteहै जस की तस ही,लेकिन फ़ाइलों में,
ग़रीबी कब की रुख़सत हो गई है।
आभार आदरणीया।
DeleteBehatreen, vah vah
ReplyDeleteआभार।
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