पुस्तक-परिचय
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कृति : सलाम-ए-इश्क़
कृतिकार:रणधीर प्रसाद गौड़ धीर
संस्करण : 2023(प्रथम)
प्रकाशक : ओम प्रकाशन,साहूकारा बरेली (उत्तर प्रदेश)
पृष्ठ : 90 मूल्य : रुo250.00
समीक्षक : ओंकार सिंह विवेक
"सलाम-ए-इश्क़" बरेली (उत्तर प्रदेश) के वरिष्ठ कवि/शायर रणधीर प्रसाद गौड़ धीर साहब का 83 ख़ूबसूरत ग़ज़लों से सजा हुआ गुलदस्ता है।संग्रह की अधिकांश ग़ज़लें रिवायती हैं परंतु इसमें हमें जगह-जगह जदीदियत और अध्यात्म के रंग भी दिखाई पड़ जाते हैं।धीर साहब की अब तक कई किताबें मंज़र-ए-आम पर आ चुकी हैं।आपको शायरी का शौक़ अपने पिता मुहतरम पंडित देवी प्रसाद 'मस्त' से विरासत में मिला जो अपने ज़माने के नामचीन शायरों में शुमार किए जाते थे।धीर साहब हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं पर समान अधिकार रखते हैं ।यही कारण है कि आपने दोनों ही भाषाओं में स्तरीय साहित्य सृजन किया है।आपकी रिवायती शायरी के दिलकश रंग पाठकों के दिल पर गहरी छाप छोड़ते हैं। इश्क़,वफ़ा,हिज्र-विसाल,बेवफ़ाई उदासी और तन्हाई जैसी तमाम भावनाओं को धीर साहब ने बड़ी ही नफ़ासत के साथ अपने अशआर में ढाला है।इसी तसलसुल में उनके कुछ अशआर मुलाहिज़ा हों :
मरीज़-ए-इश्क़ कब अच्छा हुआ है,
ये बीमारी जहाँ में ला- दवा है।
हसीनों से वफ़ा की आरज़ू, ऐ धीर तौबा कर,
सितमगर हैं वही जो देखने में भोले- भाले हैं।
कटेगी किस तरह ये हिज्र की शब,
इज़ाफ़ा दर्द में है शाम ही से।
चमन को दिल के अभी तक है इंतज़ारे-बहार,
ख़ुशी के फूल खिला दो बहुत उदास हूं मैं।
शायर रणधीर प्रसाद गौड़ धीर को अपने एहसासात को बहुत ही शाइस्तगी के साथ अशआर में ढालने का हुनर आता है।उन्होंने मुख्तलिफ बहरों में बड़ी ख़ूबसूरती के साथ अपनी फ़िक्र को परवाज़ दी है। धीर साहब की शायरी का एक रंग यह भी देखें(इन अशआर को मैंने मंचों पर धीर साहब को पूरी मस्ती में तरन्नुम के साथ पेश करते हुए देखा है) :
थक गए हैं क़दम दूर मंज़िल,
दिल पे क़ाबू हमारा नहीं है।
कैसे देखेंगे बज़्म-ए-नज़ारा,
नातबां हैं सहारा नहीं है।
जैसा कि मैंने पहले अर्ज़ किया कि शायर के इस ग़ज़ल- संग्रह में अधिकतर अशआर रिवायती हैं परंतु कहीं- कहीं जदीदियत का पुख़्ता रंग भी उभर कर आता है।शायर शिन्फ़-ए-ग़ज़ल के मिज़ाज को बख़ूबी समझता है सो लफ़्ज़ों को पूरी एहतियात के साथ बरता गया है जो एक पुख़्ता शायर की पहचान होती है। धीर साहब की जदीद गजलों के रंग से भी आप हज़रात का रूबरू होना ज़रूरी है
क्या करें हम ज़ुबान खुल ही गई,
काश अहले ज़ुबां नहीं होते।
तड़प जाएं जो दर्द में दूसरों के,
मिलेंगे बशर ऐसे कम ज़िंदगी में।
ग़लत रास्ते पर कभी धीर हमने,
उठाए न अपने क़दम ज़िंदगी में।
इंसान जिस मुल्क में रहता है उससे वफ़ादारी और प्यार न हो ऐसा मुमकिन ही नहीं।अपने वतन से प्यार की इंतेहा धीर साहब के इस शेर में देखी जा सकती है
जन्नत ख़ुदा की देन है इसकी ख़बर नहीं,
जन्नत है जिसका नाम वो मेरे वतन में है।
पूरे ग़ज़ल- संग्रह को पढ़ने के बाद मैं यह बात दा'वे के साथ कह सकता हूं कि शायर की अधिकांश ग़ज़लें फ़साहत, बलाग़त और सलासत जैसी ख़ूबियों को अपने अंदर समेटे हुए हैं।धीर साहब की ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे हम खुली हवा में सांस ले रहे हों। दीवान की तमाम ग़ज़लों के कथ्य ग़ज़ल की सीमाओं को विस्तार देते हुए प्रतीत होते हैं। निश्चित तौर पर यह ग़ज़ल-संग्रह ग़ज़ल प्रेमियों को आकर्षित करेगा।
जैसा कि अक्सर होता है,इस ग़ज़ल-संग्रह में भी प्रूफ रीडिंग आदि की थोड़ी बहुत कमियां हैं। ग़ज़ल विधा के माहिरीन कहीं-कहीं ऐब-ए-तनाफुर या कुछ और पहलुओं को लेकर मुख्तलिफ़ राय रख सकते हैं।परंतु कुल मिलाकर वरिष्ठ कवि/शायर रणधीर प्रसाद गौड़ धीर साहब का यह ग़ज़ल-संग्रह पठनीय एवम संग्रहणीय है।
मैं धीर साहब के दीर्घायु होने की कामना करता हूं ताकि भविष्य में भी वह यूं ही अपने श्रेष्ठ सृजन से समाज को दिशा देने का काम करते रहें।
ओंकार सिंह विवेक
साहित्यकार/समीक्षक/ब्लॉगर
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
Bahut sundar sameeksha ki hai aapne, badhai.
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका।
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