February 19, 2024

कविता के दो रंग


दोस्तो नमस्कार 🙏🙏
आज समय की मांग के अनुरूप ग़ज़ल का फ़लक भी विराट हो चुका है। ग़ज़लकार अब परंपरागत कथ्यों से हटकर अपने समय, समाज और संस्कृति को पूरी संवेदना के साथ ग़ज़लों के कथ्य में पिरो रहे हैं।आज हिंदी में भी ग़ज़लकारों की एक पूरी श्रृंखला है जो अपनी ग़ज़लों के जदीद कथ्यों से ग़ज़ल विधा को नई ऊंचाईयां दे रही है। हरेराम समीप, द्विजेंद्र द्विज, राजमूर्ति सौरभ, अशोक रावत और के पी अनमोल जैसे तमाम नाम आज हिन्दी देवनागरी में ग़ज़ल विधा को नए आयाम दे रहे हैं। हां,यह बात ठीक है कि अभी भाषाई स्तर पर कुछ शब्दों के नुक्ते सहित उच्चारण, वज़्न तथा लिंग आदि को लेकर हिन्दी तथा उर्दू दोनों ही भाषाओं के विद्वानों के अपने-अपने आग्रह हैं। ऐसा हर भाषा के अपने मानक स्वरूप की माँग के कारण स्वाभाविक भी है।परंतु इन मुद्दों पर सामंजस्य हेतु निरंतर सार्थक चर्चाओं का दौर जारी है जो अच्छी बात है। आखि़र किसी भी लोकप्रिय काव्य विधा की राह के अवरोध दूर होने ही चाहिए।
आज मेरे ग़ज़ल संग्रह "दर्द का अहसास" से दो ग़ज़लें आपकी प्रतिक्रिया हेतु प्रस्तुत हैं :
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       (१)
सच को मन  में बसा  लिया हमने,
अपना जीवन सजा लिया  हमने।

साफ़गोई   से   ये   हुआ  हासिल,
सबको दुश्मन बना  लिया  हमने।

दी  नहीं उनको कोई  भी ज़हमत,
ख़ुद ही ख़ुद को मना लिया हमने।

मुश्किलें   क्या    बिगाड़   पाएंगी,
हौसला  जब  जगा  लिया  हमने।

झूठ और छल-कपट की दुनिया में,
अपना   ईमां   बचा   लिया  हमने।

             (२)
हाथों   में   चाक़ू-ओ-पत्थर  अच्छे  लगते   हैं,
कुछ  लोगों   को  ऐसे  मंज़र  अच्छे  लगते हैं।

झूठ यहां  जब लोगों  के  सिर  चढ़कर  बोले है,
हमको  सच्चे  बोल  लबों  पर  अच्छे  लगते हैं।

यूं  तो  हर  मीठे  का  है  मख्सूस  मज़ा लेकिन,
सावन   में    फैनी-ओ-घेवर  अच्छे   लगते  हैं।

चांद-सितारे  कौन  कभी  ला  पाया  है  नभ से,
फिर  भी  उनके  वादे अक्सर  अच्छे  लगते  हैं।

हर मुश्किल से आंख मिलाना,ग़म से लड़ जाना,
जिसमें   भी   हों  ऐसे   तेवर  अच्छे   लगते  हैं।
           @ओंकार सिंह विवेक








        (२ )

4 comments:

  1. वाह!!, ज़िंदगी की राह दिखातीं बेहतरीन ग़ज़लें,

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  2. लाजवाब रचनाकार हैं आप!

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    Replies
    1. अतिशय आभार आदरणीया।

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