January 5, 2024

झुर्री वाले गाल


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। साहचार्य से रहने में ही जीवन की सार्थकता है।मनुष्य समाज में रहकर बहुत कुछ सीखता है और उससे बहुत कुछ लेता भी है। अत: उसका दायित्व बनता है कि वह समाज को कुछ दे भी। स्वार्थ भाव से ऊपर उठकर समाज की सेवा भी करे।समाज सेवा के विभिन्न माध्यम हो सकते हैं। साहित्य सृजन के माध्यम से भी समाज की सेवा की जा सकती है। सृजनात्मक साहित्य वही कहलाता है जो लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करे और उनकी संवेदनाओं को छुए। हम सब साहित्यकारों का यह कर्तव्य बनता है कि अपने श्रेष्ठ साहित्य सर्जन से समाज की दशा और दिशा बदलते रहें।

आज अपने कुछ दोहे आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं  :

आज कुछ दोहे यों भी 

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दादा  जी   होते   नहीं, कैसे   भला   निहाल।

नन्हे    पोते   ने    छुए, झुर्री    वाले    गाल।।


क्या  बतलाए गाँव  का,मित्र! तुम्हें  हम  हाल।            

आज न वह पनघट रहा ,और न वह चौपाल।।


क्या  होगा इससे  अधिक,मूल्यों का अवसान।

बेच   रहे   हैं  आजकल, लोग   दीन   ईमान।।


मन  में  जाग्रत हो  गई,लक्ष्य प्राप्ति  की  चाह।

कठिन राह की क्या भला,होगी  अब परवाह।।


याची  कब  तक  हों नहीं,बतलाओ  हलकान।

झिड़क  रहे  हैं  द्वार पर, उनको  ड्योढ़ीवान।।

           @ओंकार सिंह विवेक 

अवसान -- समाप्ति,अंत

याची -- आवेदक, फ़रियादी

हलकान -- परेशान

(चित्र : ३ जनवरी,२०२४ को आकाशवाणी रामपुर में काव्य पाठ की रिकॉर्डिंग के अवसर पर)






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