July 18, 2023

"कोई पत्थर नहीं हैं हम" : ग़ज़ल-संग्रह (ग़ज़लकार अशोक रावत)

नमस्कार दोस्तो 🌹🌹🙏🙏

आज हाज़िर है आगरा के वरिष्ठ ग़ज़लकार श्री अशोक रावत की के ग़ज़ल-संग्रह "कोई पत्थर नहीं हैं हम" की समीक्षा 

         पुस्तक : कोई पत्थर नहीं हैं हम (ग़ज़ल -संग्रह)  
     ग़ज़लकार : श्री अशोक रावत जी
       समीक्षक : ओंकार सिंह विवेक 
       प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन,अंसारी रोड, दरियागंज
                    नई दिल्ली - 110002
प्रथम संस्करण : वर्ष 2018
               पृष्ठ : 118   मूल्य : रुo 180.00
आदरणीय अशोक रावत जी से मेरा परिचय 2015 में फेसबुक पर चल रहे उनके ग्रुप "ग़ज़लों की दुनिया" के माध्यम से हुआ। ग़ज़लों की दुनिया स्तरीय ग़ज़लों में रुचि रखने वाले ग़ज़लकारों तथा पाठकों का फेसबुक पर एक बड़ा प्लेटफॉर्म है।वर्तमान में इसकी सदस्य संख्या लगभग 58000 से अधिक है।इससे ही इस ग्रुप की लोकप्रियता का पता चलता है।श्री रावत जी व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन में अनुशासन को महत्व देने वाले व्यक्ति हैं।वह अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते।इसी सख़्त अनुशासन और सिद्धांतवादिता के साथ वह अपने इस ग्रुप को इतने समय से सफलता पूर्वक चला रहे हैं।मेरी ग़ज़लें भी अक्सर इस समूह में स्वीकृत होती रहती हैं।श्री रावत जी  ग़ज़ल के मानकों पर पूरी तरह खरी ग़ज़लों को ही ग्रुप में स्वीकृति प्रदान करते हैं इसलिए इस समूह का स्तर श्रेष्ठ बना हुआ है।
ग़ज़ल के क्षेत्र में अशोक रावत जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं।अब तक उनके "थोड़ा सा ईमान","कोई पत्थर नहीं हैं हम", "मैं परिंदों की हिम्मत पे हैरान हूं","रौशनी के ठिकाने" और "क्या हुआ सवेरों को" आदि कई महत्वपूर्ण ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिन्हें प्रबुद्ध पाठकों और साहित्यकारों का भरपूर प्यार मिला है।
अशोक रावत जी की ग़ज़लों पर कोई समीक्षात्मक टिप्पणी करना सूरज को दिया दिखाने जैसा ही है।  ग़ज़ल में शिल्पगत सौंदर्य और कहन के साथ रावत जी कभी समझौता नहीं करते।यही कारण है कि रावत जी अपनी पुरानी ग़ज़लों में निरंतर संशोधन करते रहते हैं।इस बात में नए सीखने वालों के लिए एक बड़ा संदेश छुपा हुआ है।
संग्रह की पहली ग़ज़ल के दो अशआर ही रावत जी की शख्सियत का परिचय कराने के लिए काफ़ी है :

      अंधेरे तो हमें सच बात भी कहने नहीं देते,
      उजालों के तसव्वुर हैं कि चुप रहने नहीं देते।

        कोई पत्थर नहीं हैं हम कि रोना ही न आता हो,
       मगर हम आंसुओं को आंख से बहने नहीं देते।

पहले शेर में नकारात्मक प्रभाव के दबाव के बावजूद व्यक्ति की सकारात्मक ऊर्जा किस प्रकार ज़ोर भरती है इसकी जीवंत बानगी देखी जा सकती है।इसी प्रकार दूसरे शेर में संवेदनशीलता और संयम तथा सहनशीलता की पराकाष्ठा देखी जा सकती है। यही सृजनात्मक कविता/शायरी कही जाती है।
रावत जी के दिल को छू लेने वाले कुछ और शेर देखें :

      चुनौती दे रहे हैं आजकल लालच उसूलों को,
      हमारे हौसले पर बोझ ये भारी न हो जाए।

       किसी को मश्वरा क्या दूं कि ऐसे जी कि वैसे जी,
      मेरी ख़ुद की समझ में जब ये जीवन भर नहीं आया।

पहले शेर में वर्तमान परिदृश्य में अनैतिक आचरण और लालच की प्रवृत्तियां लोगों को कैसे अपने सिद्धांतों से समझौता करने को मजबूर कर रही हैं,आदमी की इस विवशता और आशंका को किस खूबसूरती से उकेरा गया है।
इसी प्रकार दूसरे शेर में उलझनों भरी ज़िन्दगी में कोई भी  निर्णय लेना कितना कठिन होता है इसकी अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।
सरल भाषा र्में की गई शायरी या कविता वो ही अच्छी कही जाती है जो पाठक/श्रोता को आग या वाह करने के लिए मजबूर कर दे। रावत जी की सभी ग़ज़लें इसका बेजोड़ नमूना पेश करती हैं।
आज आपसी संबंधों में आई खटास को रावत जी के ये अशआर बख़ूबी समझाते हैं :
   बड़े भाई के घर से आ रहा हूं,
  गया ही क्यों मैं अब पछता रहा हूं।

कोई दुश्मन नहीं है भाई है वो,
मैं अपने आप को समझा रहा हूं।

अगर दुश्मन रहे होते तो यूं हैरत नहीं होती,
कभी सोचा नहीं था दोस्त भी पत्थर उठा लेंगे।

लुंजपुंज व्यवस्था के प्रति आक्रोश और नैतिक मूल्यों के क्षरण पर रावत जी की चिंता देखिए :
और था वो वक्त, लफ़्ज़ों के मआनी और थे,
आजकल क़ानून कुछ है, कायदा कुछ और है।

न जाने क्यों सियासत को अंधेरे रास आते हैं,
कोई भी फ़ैसला दिन के उजालों में नहीं होता।

    बरसते हैं  ज़ुबां से फूल दिल में ख़ार होते हैं,
    भले इंसान के भी अब कई किरदार होते हैं।

संकल्प और इरादों की मज़बूती की वकालत करते इस शेर की गहराई को आसानी से समझा जा सकता है :

      अगर संकल्प मन में हो तो जंगल क्या है दलदल क्या,
       बिना संकल्प के कोई नया रस्ता नहीं बनता।

रावत जी की ग़ज़लों का स्तर बताता है कि उन्होंने कहन और शिल्प पर कितनी मेहनत की है।हिंदी में  ग़ज़ल कहते समय एक बात जो मैंने रावत जी मे अन्य हिंदी ग़ज़लकारों से अलग महसूस की वो ये कि उन्होंने कहीं भी इज़ाफ़ी शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। रावत जी हिंदी की मानक वर्तनी और इसके स्वरूप को लेकर कहीं भी हल्के नहीं पड़े हैं।
यदि मैं ये कहूं की स्वर्गीय दुष्यंत की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए रावत जी ग़ज़ल को जी रहे हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। रावत जी की ग़ज़लों में यों तो कहीं-कहीं रिवायती रंग भी है परंतु उनकी अधिकांश ग़ज़लें जदीदियत का ही आईनादार हैं। जदीदियत का कोई रंग ऐसा नहीं है जो रावत जी की ग़ज़लों में दिखाई न देता हो। रावत जी सामाजिक विसंगतियों/विद्रूपताओं और विरोधाभासों पर अपनी 
ग़ज़लों में केवल तंज़ ही नहीं करते हैं अपितु समस्याओं के समाधान भी प्रस्तुत करते हैं जो सच्ची और अच्छी कविता/शायरी की पहचान है।
मैं आदरणीय अशोक रावत जी के उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना करता हूं ताकि भविष्य में उनकी और भी अच्छी कृतियां हमें देखने मिलें।
  ----- ओंकार सिंह विवेक
                ग़ज़लकार 


         




7 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (30-07-2023) को   "रह गयी अब मेजबानी है"    (चर्चा अंक-4674))   पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर समीक्षा।

    अंधेरे तो हमें सच बात भी कहने नहीं देते,
    उजालों के तसव्वुर हैं कि चुप रहने नहीं देते।

    कोई पत्थर नहीं हैं हम कि रोना ही न आता हो,
    मगर हम आंसुओं को आंख से बहने नहीं देते।

    दिल को छूती पंक्तियां।

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    1. आपने मन से समीक्षा पढ़ी, ह्रदय से आभार आपका।

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  3. बहुत खूबसूरत समीक्षा

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    Replies
    1. हार्दिक आभार आपका।

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  4. शानदार संग्रह...वाह अशोक जी

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