कई दिन बाद मेरी एक बिल्कुल ताज़ा ग़ज़ल हाज़िर है। आप सभी सम्मानितों की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा
ग़ज़ल : ओंकार सिंह विवेक
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आजिज़ी तो है नहीं गुफ़्तार में,
कौन पूछेगा हमें दरबार में।
नफ़्सियाती नुक़्स है दो-चार में,
वरना है सबका अक़ीदा प्यार में।
संग रखता है उसे जो ये गुलाब,
कुछ तो देखा होगा आख़िर ख़ार में।
बारहा रोता है दिल ये सोचकर,
वन कटेगा शह्र के विस्तार में।
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पूछने आए थे मेरी ख़ैरियत,
दे गए ग़म और वो उपहार में।
मीर, ग़ालिब, ज़ौक़ सबका शुक्रिया,
रंग क्या-क्या भर गए अशआर में।
बैठा है परदेस में लख़्त-ए-जिगर,
क्या ख़ुशी माँ को मिले त्योहार में।
- ©️ ओंकार सिंह विवेक
आजिज़ी ------ लाचारी,दीनता
गुफ़्तार ---- बोली, बातचीत
नफ़्सियाती नुक़्स --- मानसिक कमी
अक़ीदा ----- श्रद्धा,भरोसा
ख़ार -------. कांटा
बारहा ---- बार-बार
अशआर ----- शेर का बहुवचन
लख़्त-ए-जिगर ----- जिगर का टुकड़ा अर्थात बेटा
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بہت ہی شاندار، ہر شعر داد کے قابل مبارکباد ۔ کلام میں اور پختگی آگئ ہے
ReplyDeleteمحترم بیحد شکریہ
DeleteBadhiyaa ghazal
ReplyDeleteधन्यवाद जी
Deleteपूछने आए थे मेरी ख़ैरियत,
ReplyDeleteदे गए ग़म और वो उपहार में।
वाह! बेहतरीन ग़ज़ल
आभार आदरणीया।
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 29 मार्च 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम
अतिशय आभार आपका। ज़रूर उपस्थित होऊंगा।
Deleteवाह! बढ़िया कहा सर 👌
ReplyDeleteअतिशय आभार आपका
Deleteबहुत उम्दा गज़ल।
ReplyDeleteहार्दिक आभार 🌹🌹🙏🙏
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