आज कई दिन बाद एक ग़ज़ल हुई।एक प्रतिष्ठित साहित्यिक समूह में एक मिसरा दिया गया था जिस पर ग़ज़ल कहनी थी। मैंने भी कोशिश की और शारदे के आशीष से ग़ज़ल हो गई जो आपकी प्रतिक्रिया हेतु साझा कर रहा हूं
मिसरा -- साथ जिसके ज़माना नहीं है
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ग़ज़ल : ओंकार सिंह विवेक
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काम का भी ठिकाना नहीं है,
और घर में भी दाना नहीं है।
है यही दुख अवध वासियों को,
राम का राज आना नहीं है।
कह रही है धमक बादलों की,
धूप को मुँह दिखाना नहीं है।
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जब तलक मश्क़ होगी न जमकर,
रंग शेरों में आना नहीं है।
आज़माइश में रखते हो कितनी,
यार ये दोस्ताना नहीं है।
कह दिया माँ ने बेटे से आख़िर,
छोड़कर गाँव जाना नहीं है।
गढ़ ही लेंगे वो सौ-सौ बहाने,
जिनको मिलना-मिलाना नहीं है।
©️-- ओंकार सिंह विवेक
Bahut hi sundar
ReplyDeleteधन्यवाद
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