अतिथि साहित्यकारों के सम्मान में पल्लव मंच की काव्य गोष्ठी
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पल्लव काव्य मंच रामपुर के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार श्री शिवकुमार चंदन जी का आज दोपहर १२ बजे फोन आया कि हमारे यहां बरेली के दो वरिष्ठ साहित्यकार आए हुए हैं यदि समय निकाल कर आप भी आ जाएं तो ठीक रहेगा,उनके सम्मान में एक गोष्ठी हो जाएगी। मैं उसी समय बाज़ार से लौटकर घर पहुँचा था।मैंने कहा कि ठीक है आता हूँ।दस मिनट बाद ही मैं श्री चंदन जी के निवास पर पहुँचा गया।चंदन जी मेहमान साहित्यकारों की आवभगत में लगे हुए थे।
दोनों साहित्यकारों से परिचय हुआ।बरेली के वरिष्ठ साहित्यकार बहुत अच्छे ग़ज़लकार श्री रामकुमार भारद्वाज अफ़रोज़ साहब और दूसरे वरिष्ठ साहित्यकार,जो अपने श्रेष्ठ यथार्थवादी मुक्तकों के लिए जाने जाते हैं, श्री रामप्रकाश सिंह ओज जी से मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।जलपान के बाद काफ़ी देर तक उनसे साहित्यिक विमर्श होता रहा। दोनों ही साहित्यकारों का ज़ोर इस बात पर था की महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम कितना साहित्य सृजन करते हैं वरन महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने सृजन में क्या कहते हैं।अर्थात उनका ज़ोर सृजन की क्वांटिटी नहीं अपितु क्वालिटी पर था।नए लिखने वालों को उनकी इस बात को गांठ बाँधना चाहिए क्योंकि आजकल यही हो रहा है कि हम ठीक से पकाने पर ध्यान नहीं देते वरन धड़ाधड़ कच्चा-पक्का परोसने की जल्दी में रहते हैं। मैं उन अनुभवी वरिष्ठ साहित्यकारों की बात से पूर्णतय: सहमत था।
विमर्श के बाद मेहमान साहित्यकार श्री अफ़रोज़ साहब की अध्यक्षता और श्री चंदन जी के संचालन में एक काव्य गोष्ठी भी हुई।
गोष्ठी में मेहमान साहित्यकार श्री रामप्रकाश सिंह ओज जी ने रिश्तों की महत्ता को रेखांकित करता हुआ बहुत ही मार्मिक मुक्तक प्रस्तुत किया :
अपनी जननी-सा पवित्र कोई हो नहीं सकता,
ममता की खुशबू-सा इत्र कोई हो नहीं सकता।
वृद्धावस्था के पड़ाव पर महसूस हुआ हमें,
पत्नी से अच्छा कोई मित्र हो नहीं सकता।
---- रामप्रकाश सिंह ओज
अतिथि साहित्यकारों के आग्रह पर मैंने भी अपनी एक ताज़ा ग़ज़ल के कुछ शेर सुनाए:
मुंह पर तो कितना रस घोला जाता है,
पीछे जाने क्या-क्या बोला जाता है।
होता था पहले मेयार कभी इनका,
अब रिश्तों को धन से तोला जाता है।
ओंकार सिंह विवेक
कार्यक्रम संचालक श्री शिवकुमार चंदन जी ने अपने दोहे कुछ यों प्रस्तुत किए :
जननी उर अंतर बसी,ममता नेह सुवास।
आंचल में खुशियां पलें, छा जाए मधुमास।।
मात तुम्हारी वंदना,करते बारंबार।
चंदन के दो पुष्प को,कर लो मां स्वीकार।।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामकुमार भारद्वाज अफ़रोज़ साहब ने हिंदी क़ाफ़ियों से सुसज्जित अपनी एक ग़ज़ल के बहुत ही अर्थदर्शी अशआर पेश किए :
राक्षस माना नहीं ख़ुद को कभी,
थी बुराई बस यही लंकेश में।
शब्द शिल्पी हो गया अफ़रोज़ भी,
भावनाओं से मुखर परिवेश में।
रामकुमार भारद्वाज अफ़रोज़
इस अवसर पर मैंने अतिथि साहित्यकारों को अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह ' दर्द का एहसास' और साझा काव्य संकलन
'साधना के पथ पर' की प्रतियां भी भेंट कीं।
अंत में मेज़बान श्री शिव कुमार चंदन जी ने सभी का आभार व्यक्त करते हुए गोष्ठी के समापन की घोषणा की।
प्रस्तुतकर्ता : ओंकार सिंह विवेक
ग़ज़लकार/समीक्षक/कॉन्टेंट राइटर/ब्लॉगर
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